बुधवार, अगस्त 18, 2010

बलासुर के शरीर के सभी अंग ही रत्न बीज के रूप में परिणित हो गये ।


प्राचीनकाल में बल नाम का एक राक्षस था । इसने इन्द्र आदि सभी देवों को पराजित कर दिया था । कोई भी देवता इसको जीतने में समर्थ नहीं था । अतः देवताओं ने उपाय हेतु एक यग्य करने का विचार किया ।और उस असुर के पास जाकर उससे यग्य पशु बनने की प्रार्थना की । वचनबद्ध बलासुर ने अपना शरीर
देवताओं को दान में दे दिया । और अपने ही वाग्वज्र से वह पशुवत ही मारा गया । उस असुर ने संसार के कल्याण हेतु । देवताओं की हितकामना से यग्य में शरीर का त्याग किया था । अतः उसका शरीर विशुद्ध सत्वगुण सम्पन्न हो गया । उसके शरीर के सभी अंग रत्न बीज के रूप में परिणित हो गये । इस प्रकार रत्नों की उत्पत्ति होने पर । देवता । यक्ष । नाग तथा सिद्धों का बडा ही उपकार हुआ । जब वे विमान से उसके शरीर को आकाशमार्ग से ले जा रहे थे । तो वेग के कारण उसका शरीर स्वतः ही खण्ड खण्ड होकर प्रथ्वी पर जहां तहां गिरने लगा । उसके शरीर के अंग प्रथ्वी पर समुद्र । नदी । पर्वत । वन आदि जहां कहीं भी गिरे । उन स्थानों पर रत्न की खान बन गयी और वह स्थान उसी रत्न के नाम से प्रसिद्ध हो गया । उन खानों में विविध प्रकार के और रत्न उत्पन्न होने लगे । जो राक्षस । विष । सर्प । व्याधि आदि पाप जनित रोगों को दूर करने में समर्थ थे । रत्नों के अलग अलग प्रकारों को । वज्र या हीरा । मुक्तामणि । पद्मराग । मरकत । इन्द्रनील । वैदूर्य । पुष्पराग । कर्केतन । पुलक । रुधिर । स्फ़टिक । प्रवाल आदि कहते हैं ।
रत्न पारखी और रत्न के चाहने वालों को सर्वप्रथम । रत्न का आकार । रंग । गुण । दोष । फ़ल । परीक्षा तथा मूल्य ग्यात होना चाहिये । क्योंकि कुत्सित लग्न और कुयोग से बाधित । अशुभ दिन में जिन रत्नों की उत्पत्ति होती है । वे दोष युक्त हो जाते हैं । और उनकी गुण क्षमता निश्चय ही नष्ट हो जाती है ।
रत्नों में वज्र यानी हीरा सर्वाधिक प्रभावशाली होता है । वज्र यानी हीरे की उत्पत्ति बलासुर के अस्थिभाग से हुयी । हिमांच्चल । मातंग । सौराष्ट्र । पौण्ड्र । कलिंग । कोसल । वेण्वातट । सौवीर ये प्रथ्वी पर आठ भूभाग हीरा के क्षेत्र हैं । हिमालय से उत्पन्न हीरा तांबे के रंग का । वेणुका तट से प्राप्त हीरा चन्द्रमा जैसा सफ़ेद । सौवीर का नीलकमल और कृष्णमेघ के समान । सौराष्ट्र का तांबे के रंग का । कलिंग देश का सोने के समान । कोसल का पीले रंग का । पौण्ड्र का काला । मतंग का हल्के पीले रंग का होता है ।
संसार में कहीं पर अत्यन्त क्षुद्र वर्ण । पार्श्व भाग में भली प्रकार से दिखाई देने वाली रेखा । बिंदु । कालिमा । त्रास आदि दोष से रहित । परमाणु की तरह बहुत छोटा तथा बह्द तीखी धार वाला दुर्लभ हीरा मिल जाय । तो उसमें देवता का वास समझा जाता है । रंगो के अनुसार ही हीरों में देवताओं का विग्रह माना गया है । सफ़ेद । हरे । पीले । पिंगल । कालेपन पर । तथा तांवे के रंग के हीरे सुन्दर माने गये है । जस प्रकार संसार में वर्ण संकरता यानी नीच ऊंच भाव दुखदायी एवं दोषयुक्त होता है । हीरे का वर्णसंकर उससे कहीं अधिक कष्टकारक होता है । इसीलिये रंग और सुन्दरता के आधार पर ही हीरा रखना उचित नहीं होता । गुणवान रत्न गुण और सम्पत्ति लाता है । गुणहीन रत्न कष्ट लाता है । हीरे का एक भी हिस्सा टूटा या छिन्न भिन्न हो तो ऐसे गुणवान हीरे को घर में रखना उचित नहीं होता । अग्नि के समान स्फ़ुटित । श्रंगभाग से युक्त । विशीर्ण । गंदे या धुंधले रंग वाले । बीच स्थान में बिंदुओं वाले हीरे को पास में रखने से तुरन्त धन का नाश होने लगता है । जिस हीरे का कोई हिस्सा किसी चीज से विदीर्ण और क्षत विक्षत तथा मनुष्य शरीर जैसी आभा दिखाता हो । और खून के फ़ैले होने जैसा आभास देता हो । ऐसा हीरा
रखने से अत्यन्त शक्तिशाली व्यक्ति की भी मृत्यु हो जाती है । षटकोण । विशुद्ध । निर्मल । तीखे धार वाला । छोटा । सुन्दर और पार्श्वभाग से युक्त तथा मनोहारी किरणें सी बिखेरता हुआ हीरा बेहद दुर्लभ होता है ।
जो मनुष्य दोषशून्य । तीखे किनारे वाला । निर्मल हीरा पहनता है । वह जीवन भर स्त्री सम्पत्ति पुत्र धन धान्य आदि से भरा पूरा रहता है । सर्प । जहर । व्याधिया । अग्नि । जल । चोर आदि का भय । मन्त्र तन्त्र द्वारा अहित के लिये की गयी क्रियायें । ऐसे हीरे के पास आने से पहले ही दूर से निकल जाते हैं । यदि हीरा सभी दोषों से रहित और वजन में बीस तण्डुल ( आठ गौर सरसों के दानों के भार के बराबर एक तण्डुल होता है ) का हो । तो उसका मूल्य अन्य हीरों की तुलना में दोगुना होता है । जो हीरा सब गुणों से युक्त होता है । और जल में डालने पर तैरता है । वह सर्वश्रेष्ठ होता है । उसको धारण करना अति उचित है । जिस हीरे में थोडा भी दोष हो । उसकी कीमत सिर्फ़ असली कीमत की दस परसेंट रह जाती है । जिस हीरे में छोटे बडे कई दोष हों उसकी कीमत मूल कीमत की एक परसेंट ही रह जाती है । प्रथ्वी में जितने भी रत्न या लोहा आदि जितनी भी धातुएं हैं । हीरा उन सबमें चिह्नांकन कर सकता है । किन्तु अन्य कोई भी रत्न या धातु हीरे में चिह्नांकन नहीं कर सकती । पुष्परागादि जातिविशेष के रत्न दूसरी जाति के रत्न को काट सकते है । किन्तु हीरा और माणिक या कु्रुबिल्ब अपनी ही जाति के रत्न को काटने में सक्षम होते हैं । हीरे से ही हीरे को काट सकते हैं । अन्य रत्नों से हीरे को नहीं काट सकते । हीरे के अलावा । हीरक और मुक्ता आदि जितने भी रत्न हैं । उनमें किसी की भी प्रभा ऊपर की ओर नहीं जाती । केवल हीरा ही ऐसा
होता है । जिसकी प्रभा ऊपर की ओर जाती है ।

सोमवार, अगस्त 16, 2010

गंगा अवतरण ।




हिमालय और उसकी पत्नी सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना की अत्यंत सुन्दर रूपवती और बेहद गु्णवान दो कन्याएँ थीं । । जिनमें बड़ी का नाम गंगा तथा छोटी का उमा था । गंगा अत्यन्त सुन्दर और असाधारण गुणों की मालकिन थी । वह उन्मुक्त रहकर मनमाने मार्ग पर चलती थी । उसकी इसी बात से प्रभावित होकर देवता उसे हिमालय से माँग कर ले गये । दूसरी कन्या उमा तपस्विनी थी । उसने कठोर तपस्या कर शिव को वर के रूप में प्राप्त किया । देवलोक में विचरती हुई गंगा की एक दिन उमा से भेंट हुई । गंगा ने उमा से कहा । मुझे देवलोक में रहते हुये बहुत दिन हो गये । मेरी इच्छा है कि मैं अब पृथ्वी पर विचरण करूँ । उमा ने उससे कहा । कि वह इसके लिये कोई उपाय करने की कोशिश करेंगी । उन्हीं दिनों अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे । उनके कोई संतान नहीं थी । सगर की रानी का नाम केशिनी था । जो विदर्भ के राजा की पुत्री थी । केशिनी बेहद सुन्दर और धर्मात्मा थी । सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति था । वह राजा अरिष्टनेमि की पुत्री थी । सगर अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में गए । और पुत्र प्राप्ति के लिये तप करने लगे । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया । कि तुम्हें अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी । दोनों रानियों में एक को केवल एक पुत्र होगा । जो वंश को बढ़ायेगा । और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे । कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है । इसका निर्णय वह स्वयं करे । केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की । और गरुड़ की बहिन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की इच्छा की । कुछ समय के बाद केशिनी ने असमञ्ज नामक पुत्र को जन्म दिया । और सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला । जिसे फ़ाड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले । उन सबका पालन घी के घड़ों में रखकर किया गया । समय बीतने के साथ सभी राजकुमार युवा हो गये । सगर का बडा पुत्र असमञ्ज अति दुराचारी स्वभाव का था । उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंककर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था । असमञ्ज की आदतों से दुखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया । असमञ्ज के अंशुमान नाम का एक पुत्र था । पिता के स्वभाव के विपरीत अंशुमान सदाचारी और पराक्रमी था । एक दिन सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार आया । तब सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच उत्तम भूमि का चयन कर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण कराया । और अश्वमेघ यज्ञ के लिये घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये अंशुमान को सेना के साथ भेज दिया । यज्ञ की सफलता से भयभीत होकर इन्द्र ने राक्षस का रूप धारणकर घोड़े को चुरा लिया । घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आज्ञा दी । कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ । लेकिन जब हर तरफ़ खोजने पर भी घोड़ा नहीं मिला तो । तो यह सोचकर कि किसी ने घोडा चुराकर तहखाने में न छुपा दिया हो । उन्होंने पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया । इस कार्य से लाखों भूमिगत प्राणी मारे गये । लेकिन इसकी चिंता न कर खोदते खोदते वे पाताल तक पहुँच गये । तब देवताओं ने ब्रह्मा से चिंता प्रकट की । ब्रह्मा ने कहा । ये राजकुमार क्रोध में अन्धे होकर ऐसा कार्य कर रहे हैं । लेकिन पृथ्वी की रक्षा की जिम्मेदारी कपिल ऋषि पर है । इसलिये वे इस विषय में अवश्य कुछ करेंगे । उधर पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला नहीं मिला । तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी । क्रोधित होकर सगर ने आदेश दिया । कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो । पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे कपिल के आश्रम में पहुँच गये । और देखा कपिल तपस्या में लीन हैं । और उन्हीं के पास यज्ञ का घोड़ा बँधा है । उन्होंने कपिल को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे । और उन्हें मारने दौड़े । कपिल की समाधि भंग हो गई । उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के सब पुत्रों को वहीं भस्म कर दिया । बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना न मिलने पर सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये भेजा । अंशुमान अपने चाचाओं के द्वारा बनाए मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा । और रास्ते में मिलने वाले ऋषि मुनियों से पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया । जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्म शरीरों की राख पड़ी थी । और पास ही वह घोड़ा चर रहा था । अपने चाचाओं के भस्म शरीर देखकर उसे अत्यन्त दुख हुआ । उसने उनका तर्पण करने के लिये सरोवर की खोज की । किन्तु उसे कोई भी जलाशय दिखाई नहीं दिया । तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी । उन्हें प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा । पितामह । मैं अपने चाचाओं का तर्पण करना चाहता हूँ । यदि कोई सरोवर हो तो उसका पता बताइये । यदि आपको इनकी मृत्यु के विषय में कोई जानकारी हो । तो वह भी बताने की कृपा करें । गरुड़ ने बताया । किस प्रकार इन्द्र ने घोडा चुरा कर कपिल मुनि के पास छोड़ दिया । और उसके चाचाओं ने कपिल के साथ दुर्व्यवहार किया । जिसके कारण कपिल मुनि ने उनको भस्म कर दिया । इसके पश्चात् गरुड ने कहा । कि ये सब अलौकिक शक्ति पुरुष द्वारा भस्म किये गये हैं । अतः साधारण जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा । केवल हिमालय पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है । अब तुम घोडा लेकर वापस जाओ । जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके । गरुड़ के कहे अनुसार अंशुमान अयोध्या पहुँचे । और अपने पितामह को सारा वृत्तान्त सुनाया । सगर ने दुखी मन से यज्ञ पूरा किया । वे अपने पुत्रों के उद्धार के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे । पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी । सगर के देहान्त के पश्चात अंशुमान शासन करने लगा । अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये । दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्यभार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा अवतरण के लिये तप करने लगे । किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त नहीं हुई । और वे स्वर्ग सिधार गए । इधर जब राजा दिलीप का पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ । तो उसे राज्यभार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तप करने चले गये । पर उन्हें भी सफलता नहीं मिली । भगीरथ प्रजावत्सल राजा थे । किन्तु उनके भी कोई सन्तान नहीं हुई । वे अपने राज्यभार मन्त्रियों को देकर स्वयं गंगा अवतार के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा । भगीरथ ने ब्रह्मा से कहा । हे प्रभो । यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं । तो यह वर दीजिये । कि सगर के पुत्रों को गंगा का जल प्राप्त हो । जिससे उनका उद्धार हो सके । इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये । ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो । ब्रह्मा ने कहा । सन्तान का तेरा मनोरथ तो शीघ्र पूरा होगा । किन्तु प्रथम वरदान देने में कठिनाई यह है । कि जब गंगा वेग के साथ पृथ्वी पर आयेगी । तो उनका वेग कौन संभालेगा । गंगा के वेग को संभालने की क्षमता शिव के अतिरिक्त किसी में नहीं है । इसके लिये तुम्हें शिव को प्रसन्न करना होगा । इतना कहकर ब्रह्मा चले गये । भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा । वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर शिव की तपस्या करते रहे । वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी वस्तु का सेवन नहीं किया । भगीरथ की भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा । हे भक्त । हम गंगा को अपने मस्तक पर धारण करेंगे । यह सूचना पाकर गंगा को देवलोक का त्यागना पड़ा । उस समय गंगा देवलोक से जाना नहीं चाहती थी । इसलिये यह सोच कर कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव को बहाकर पाताल ले जाऊँगी । गंगा भयानक वेग से शिव के सिर पर अवतरित हुईं । गंगा का यह अहंकार शिव को अच्छा न लगा । उन्होंने गंगा की वेगयुक्त धाराओं को अपने जटाजूट में बांध लिया । गंगा समस्त प्रयत्न के बाद भी शंकर की जटाओं से बाहर न निकल सकी । गंगा को इस प्रकार शिव की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की । भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर ने गंगा को हिमालय पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ दिया । छूटते ही गंगा सात धाराओं में बँट गईं । गंगा की तीन धाराएँ । ह्लादिनी । पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुयीं । सुचक्षु । सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहने लगी । और सातवीं धारा भगीरथ के पीछे पीछे चली । जिधर भगीरथ जाते थे । उधर गंगा जाती थी । अनेक लोग उनका स्वागत कर रहे थे । जो भी उस जल का स्पर्श करता । भव बाधाओं से मुक्त हो जाता । चलते चलते गंगा उस स्थान पर पहुँची । जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे । गंगा अपने वेग से उनकी यज्ञ सामग्री को बहाकर ले जाने लगी । इससे ऋषि को क्रोध आ गया । और उन्होंने गंगा का सारा जल पी लिया । यह देखकर सबको बड़ा विस्मय हुआ । और वे गंगा को मुक्त करने के लिये उनसे प्रार्थना करने लगे । तब जह्नु ऋषि ने गंगा को अपने कानों से निकाल दिया । और गंगा को पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया । तब से गंगा का एक नाम जाह्नवी हो गया । इस तरह गंगा भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गई । और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गई । उनके जल के स्पर्श से भस्म हुये सगर के पुत्र उद्धार होकर स्वर्ग गये । उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये । त्रिपथगा । जाह्नवी । भागीरथी । कपिल आश्रम में गंगा के पहुँचने पर ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर भगीरथ को वरदान दिया । कि तेरे पुण्य प्रताप से प्राप्त इस गंगा में जो मनुष्य स्नान करेगा । वह सब प्रकार के दुखों से मुक्त होकर अन्त में स्वर्ग जायेगा । जब तक पृथ्वी पर गंगा प्रवाहित रहेगी । उसका एक नाम भागीरथी होगा और सम्पूर्ण प्रथ्वीलोक में तेरा यशगान होगा ।

शनिवार, अगस्त 14, 2010

जो पति के साथ प्रिय वचन बोलती हो । वही वास्तव में पत्नी है ।

जो मनुष्य धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों की सिद्धि चाहता हो । उसको सदैव सज्जनों की ही संगति करनी चाहिये । दुष्टों के साथ रहने से इस लोक अथवा परलोक का भी हित नहीं होता । नीच के साथ वार्तालाप ।दुष्ट व्यक्ति का दर्शन । शत्रु के साथी व्यक्ति से प्रेम । और मित्र का विरोध नहीं करना चाहिये । मूर्ख शिष्य को उपदेश । दुष्ट स्त्री का भरण पोषण करने से । तथा दुष्टों का किसी कार्य में सहयोग लेने से विद्वान पुरुष भी अन्त में दुखी ही होता है । काल की प्रबलता से शत्रु के साथ संधि । और मित्र से भी शत्रुता हो जाती है । अतः कार्य कारण भाव का विचार करके ही ग्यानी पुरुष अपना समय व्यतीत करते हैं । समय ही प्राणियों का पालन करता है । समय ही उनका संहार करता है । उन सभी के सोने पर समय ( काल ) जागता ही रहता है । अतः समय को जीतना बडा कष्ट साध्य है । समय पर ही प्राणी का बल क्षीण हो जाता है । समय आने पर ही प्राणी गर्भ में आता है । समय के आधार पर उसकी सृष्टि होती है और पुनः समय पर ही उसका संहार होता है । काल निश्चित ही नियम से नित्य सूक्ष्म गति वाला ही होता है । तब भी हमारे अनुभव में उसकी गति दो प्रकार से होती है । जिसका अंतिम परिणाम जगत का संग्रह ही होता है । यह गति स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार की होती है । उत्तम प्रकृति वाले सज्जनों की संगति । संतो के साथ सतसंग सुनना । और लोभरहित मनुष्य के साथ मैत्री करने वाला कभी दुखी नहीं होता । दूसरे की निंदा । दूसरे का धन लेना । परायी स्त्री के साथ हंसी मजाक । और पराये घर में निवास कभी नहीं करना चाहिये । यदि हितकारी हो तो अन्य व्यक्ति भी अपना बन्धु हो जाता है । और बन्धु अहितकर होने पर अन्य के समान हो जाता है । जिस प्रकार अपने ही शरीर में उत्पन्न हुयी व्याधि अहितकर होती है । और दूर वन में उत्पन्न हुयी औषधि उस व्याधि को दूर करके हितकारी हो जाती है । जो मनुष्य सदैव हित में तत्पर रहता है । वही असली बन्धु है । जो भरण पोषण करता है । वही पिता है । जिस व्यक्ति पर विश्वास हो वही मित्र है ।
और जहां पर मनुष्य का जीवन निर्वाह हो वही उसका देश है । जो बीज अंकुरित हो । वही वास्तव में बीज है । जो पति के साथ प्रिय वचन बोलती हो । वही वास्तव में पत्नी है । जो पिता की असमर्थ होने पर भी सेवा करता है । वही वास्तव में पुत्र है । जो गुणवान है । उसी का जीवन सार्थक है । जो धर्म से जी रहा है । वही जीवित है । जो पत्नी ग्रहकार्य में दक्ष है । जो प्रिय बोलती है । जिसके पति ही प्राण हैं । और जो पति परायणा है । वही वास्तव में असली पत्नी है । जो नित्य स्नान करके अपने शरीर को सुगन्धित दृव्य पदार्थ से सुवासित करती है । और अल्पाहारी है । कम बोलने वाली है । सदा सब प्रकार के मंगलो से युक्त है । जो निरन्तर धर्म परायण हैं । निरन्तर पति को प्रिय है । सुन्दर मुखवाली है । तथा जो ऋतुकाल में ही पति से सहवास की इच्छा रखती है । वह उत्तम पत्नी ही है । जिसकी पत्नी विरूप नेत्रों वाली । पापिनी । कलहप्रिय । और विवाद में बड चडकर बोलती हो । वह पति के लिये वृद्धवस्था के समान ही है । जिसकी औरत पर पुरुष का आश्रय ग्रहण करने वाली हो । दूसरे के घर में रहने की इच्छा रखती हो । कुकर्म में सलंग्न हो । निर्लज्ज हो । उस पुरुष के दुख का कौन बखान कर सकता है । जिसकी औरत गुणों का महत्व समझने वाली । पति का अनुगमन करने वाली । और थोडे में संतुष्ट रहने वाली हो । पति के लिये वह सच्ची प्रियतमा है । सामान्य औरत नहीं । दुष्ट पत्नी । दुष्ट मित्र । पलटकर उत्तर देने वाला नौकर । और जिस घर में सर्प का निवास हो । वहां रहना साक्षात मृत्यु ही है । जो स्त्री सर्प के कण्ठ में रहने वाले विष के समान है । जो सांप के फ़न के समान भयंकर है । जो रौद्र रस की साक्षात मूर्ति हो । जो शरीर से काले रंग की हो । जो रक्त के समान लाल लाल आंखों से दूसरे का ह्रदय भयभीत करती हो । जो बाघ के समान भयानक हो । जो क्रोध से बोलने वाली । और प्रचण्ड अग्नि की ज्वाला के समान धधकने वाली हो । और कौवे के समान जीभ की लालची ( कुछ भी खाने की शौकीन ) हो । अपने पति से प्रेम न रखने वाली हो । भृमित चित्त वाली । दूसरों के घर नगर आदि में जाने वाली । पराये पुरुष की इच्छा रखने वाली । ऐसी स्त्री से सदा दूर रहने में ही कल्याण है । भाग्य से कभी कमजोर भी ताकतवर हो सकता है । दुष्ट व्यक्ति भी भला कर सकता है । अग्नि में भी शीतलता आ सकती है । हिम में गर्मी आ सकती है । किन्तु वैश्या के ह्रदय में किसी के लिये सच्चा अनुराग नहीं हो सकता । घर के अन्दर भयंकर सर्प देख लिये जाने पर । चिकित्सा होने पर भी रोग बने रहने पर । बाल युवा आदि अवस्था से युक्त यह शरीर काल से घिरा हुआ है । यह समझने पर ऐसा कौन सा व्यक्ति है । जो धैर्य धारण कर सकता है ।

हथियार धारी पुरुष और चंचल स्त्री विश्वास करने योग्य नहीं होते ।

पक्षी फ़लरहित वृक्ष का त्याग कर देते हैं । सारस आदि पक्षी सूखे जलाशय को त्याग देते हैं । वैश्य़ाएं धनहीन होते ही पुरुष को त्याग देती हैं । मन्त्री भृष्ट राजा को त्याग देते हैं । भोंरे मुर्झाये पुष्प को त्याग देते हैं ।
और हिरन जले हुये वन को त्याग देते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सभी प्राणी स्वार्थवश ही एक दूसरे से प्रेम करते हैं । वास्तव में कौन किसका प्रिय है ? आपत्तिकाल में मित्र । युद्ध में वीरता । एकान्त स्थान में शुचिता । धन के खत्म हो जाने पर पत्नी । तथा अकाल के समय अतिथप्रियता की पहचान होती है ।
आपत्तिकाल के लिये धन को संचय करना चाहिये । स्त्रियों की रक्षा के लिये धन का उपयोग करना चाहिये । एवं अपनी रक्षा में स्त्री और धन दोनों का उपयोग करना चाहिये । कुल की रक्षा के लिये एक व्यक्ति का ।
ग्राम की रक्षा के लिये कुल का । जनपद के हित के लिये ग्राम का । और अपने वास्तविक कल्याण के लिये प्रथ्वी का भी त्याग कर देना चाहिये । धन देकर लोभी को । करबद्ध प्रणाम निवेदन से उदार चित्त व्यक्ति को । प्रसंशा करने से मूर्ख व्यक्ति को । तत्व चर्चा से विद्वान पुरुष को संतुष्ट किया जा सकता है । विनम्र निवेदन से सज्जन पुरुष को । भेद नीति से धूर्त को । अपने से कम शक्ति वाले को थोडा बहुत देकर । और अपने समान शक्ति वाले को अपेक्षा के अनुरूप धन देकर वश में किया जा सकता है । जिसका जैसा स्वभाव हो । उसके अनुरूप वैसे ही वचन बोलते उसके ह्रदय में प्रवेश कर चतुर व्यक्ति को यथाशीघ्र उसे अपना बना लेना चाहिये । नदी । नाखून । सींग वाले पशु । हथियार धारी पुरुष और चंचल स्त्री विश्वास करने योग्य नहीं होते । जो मनुष्य बुद्धिमान है उसको अपनी धन की क्षति । घर में हुआ दुश्चरित्र । तथा अपमान की घटना दूसरे के सामने नहीं कहना चाहिये । नीच और दुष्ट व्यक्ति की समीपता । अत्यन्त विरह वियोग । सम्मान । दूसरे से प्रेम और दूसरे के घर में रहना ये सभी औरत के चरित्र को एक न एक दिन नष्ट कर ही देते हैं । किस के कुल में दोष नहीं है । रोग से कौन पीडित नहीं है । कौन दुखी नहीं है ? धन सदैव ही किसके पास रहा है ? धन पाकर किसको अहंकार नहीं हुआ ? किस पर विपत्तियां नहीं आयीं ? सुन्दर स्त्रियों द्वारा किसका मन क्षुब्ध नहीं हुआ ? कौन है जो कभी मरा नहीं ? किस भिखारी का स्वाभिमान नहीं
नष्ट हुआ ? कौन दुष्ट के जाल में फ़ंस जाने पर सुख से रह पाया ? अर्थात ऐसा कोई नहीं है । विध्या का अभ्यास न करने पर वह नष्ट हो जाती है । सामर्थ्य रहते हुये भी फ़टे पुराने मैले कुचैले वस्त्र पहनने वाली स्त्री का सौभाग्य नष्ट हो जाता है । सुपाच्य भोजन से रोग नष्ट हो जाता है । चतुराई युक्त नीति से शत्रु नष्ट हो जाता है । पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार दुगना । बुद्धि चौगुनी । कार्य करने की क्षमता छह गुनी । और कामवासना आठ गुनी अधिक होती है । स्वप्न से नींद को नहीं जीता जा सकता । कामवासना से स्त्री नहीं जीती जा सकती । ईंधन से अग्नि को त्रप्त नहीं किया जा सकता । शराब से प्यास नहीं बुझायी जा सकती । मांस युक्त । अधिक चिकनाई का भोजन । शराब का सेवन । पान । सुगन्धित पदार्थों का लेपन । सुन्दर वस्त्र और सुन्दर खुशबू युक्त फ़ूल हार आदि ये स्त्रियों की कामवासना को बडाते हैं । जैसे अधिक से अधिक लकडियों के ढेर से अग्नि संतुष्ट नहीं होती । नदियों के अनेक समूह अपने में मिलने से समुद्र संतुष्ट नहीं होता । यमराज अधिक से अधिक प्राणियों का संहार करके भी संतुष्ट नहीं होता । ऐसे ही औरत की कामवासना भी असंख्य पुरुषों के साथ सम्भोग करने पर भी संतुष्ट नहीं होती । जो स्त्रियां स्वभाव से ही धर्म विरुद्ध आचरण करने वाली हैं । एवं पति के प्रति प्रतिकूल व्यवहार रखने वाली हैं । वे स्त्रियां न धन आदि के दान । न सम्मान । न सरल व्यवहार । न सेवा भाव । न शस्त्र भय । न शास्त्र उपदेश से ही अनुकूल की जा सकती हैं । अर्थात वे सदा प्रतिकूल ही रहती हैं । जिन्होंने बाल्यकाल से ही विध्यार्जन नहीं किया ।
जिनके द्वारा युवावस्था में धन और स्त्री की प्राप्ति नहीं की जा सकी । वे इस संसार में शोक के पात्र ही हैं । और मनुष्य रूप धारण करके पशुवत ही विचरण करते हुये दुख से भरा जीवन जीते हैं । जो बाल्यावस्था में विध्या अध्ययन नहीं करते । और फ़िर युवावस्था में कामातुर होकर धन यौवन को नष्ट कर देते हैं । वे वृद्धावस्था में चिंता से जलते हुये शिशिरकाल में कोहरे से झुलसे हुये कमल पुष्प के समान दुखी जीवन ही व्यतीत करते हैं । आकार संकेत गति चेष्टा वाणी नेत्र और मुख की भाव भंगिमा से प्राणी के अंतकरण में छिपा हुआ भाव प्रकट होता रहता है । विद्वान वह है । जो दूसरे के द्वारा न कहा गया विषय भी जान लेता है । बुद्धि वह है । जो दूसरे के संकेत मात्र से ही समझ जाय । कहे गये शब्द का अर्थ तो पशु भी समझ लेते हैं । मनुष्य के दिखाये गये मार्ग पर तो हाथी घोडे भी आसानी से चलते हैं ।

पैर में गडे हुये कांटे को मनुष्य हाथ के कांटे से ही निकालता है ।

बोलचाल की निपुणता से रहित व्यक्ति की विध्या । और कायर पुरुष के हाथ में मौजूद हथियार । उन्हें वैसे ही संतुष्टि प्रदान नहीं कर सकते । जैसे अपने अंधे पति के साथ रहती हुयी उसकी स्त्री अपने रूप सौन्दर्य से पति को त्रप्त नहीं कर सकती । सुन्दर भोज्य पदार्थ उपलब्ध हों और भोजन करने की शक्ति भी हो यानी उन्हें पचाने की क्षमता हो । रूपवती यौवन से भरपूर स्त्री हो और सहवास करने की पूर्ण क्षमता भी हो । भरपूर धन हो और दान करने की भी सामर्थ्य हो यानी दान करने की इच्छा रखता हो । ये सब अल्प तपस्या के फ़ल नहीं हैं । अर्थात बडे पुन्य करने से मिलते हैं । विध्या का फ़ल शील और सदाचार है । स्त्री का फ़ल रतिक्रिया और पुत्रवान होना है । तथा धन का फ़ल दान और भोग होता है । विद्वान व्यक्ति को श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न कुरूप कन्या से भी विवाह कर लेना चाहिये । किन्तु रूपवती एवं अच्छे लक्षणों वाली लेकिन उत्तम कुल से हीन कन्या को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । दुष्ट के साथ मित्रभाव और सर्प का विषहीन होना सम्भव नहीं है । वह कुल पवित्र नहीं होता जिसमें स्त्रियां ही उत्पन्न होती हैं । अपने कुल के साथ प्रभु भक्ति जोड देनी चाहिये । पुत्र को विध्या अध्ययन में लगाना चाहिये । शत्रु को व्यसन में लगाना चाहिये । तिरस्कृत होने पर भी धैर्यसम्पन्न सज्जन व्यक्ति के गुण कभी आन्दोलित नहीं होते । दुष्ट के द्वारा नीचे कर दी गयी अग्नि की शिखा कभी नीचे नहीं आती । उत्तम जाति का घोडा कभी अपने मालिक का चाबुक प्रहार । सिंह हाथी की गर्जना । और वीर शत्रु की ललकार सहन नहीं कर सकता । यदि सज्जन मनुष्य दुर्भाग्य से कभी धनहीन हो भी जाता है । तो भी वह दुष्टों की सेवा करने की अभिलाषा नहीं रखता । और न ही नीचजनों का सहारा लेता है । जैसे भूख से अत्यन्त पीडित होने पर भी शेर घास नहीं खाता । अपितु हाथियों के गर्म रक्त का ही पान करता है । जिस मित्र में एक बार भी दुष्ट भाव दिखाई दे जाता है । और फ़िर भी कोई उससे दुबारा मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने की चाह रखता है । वह मानों खच्चरी के द्वारा धारण किये गये गर्भ के समान ही मृत्यु को पाने की इच्छा रखता है । उपकार के द्वारा वशीभूत हुये शत्रु से अन्य शत्रु को समूल ही उखाड फ़ेंकना चाहिये । क्योंकि पैर में गडे हुये कांटे को मनुष्य हाथ के कांटे से ही निकालता है ।
सज्जन मनुष्य को अपकारी के नाश की कभी चिंता नहीं करनी चाहिये । क्योंकि वह नदी के तट पर खडे वृक्ष की भांति स्वयं ही नष्ट हो जाता है । एक ही व्यक्ति में सभी ग्यान नहीं होता । इसलिये ये सर्वमान्य है । कि सभी व्यक्ति सभी कुछ नहीं जानते । और किसी भी बात में सभी सर्वग्य नहीं हैं । इस संसार में न कोई पूरा ग्याता है और न कोई पूरा मूर्ख । उत्तम मध्यम निम्न व्यक्ति जितना भी ग्यान जानता है । उसे उतने में विद्वान समझना चाहिये । क्या इसमें कोई संदेह है ?

जिन्दगी एक दिन में ही मृत्यु का बहाना लेकर समाप्त हो सकती है ।

इस क्षणभंगुर जीवन में आप सब निश्चित क्यों हैं ? दूसरे का हित करना उचित है । जो बाद में कल्याणकारी होता है । इस परोपकार धर्म से विपरीत कामिनिंयो के कटीले कटाक्ष से काम पीडित sex feeling आप सब के द्वारा जो आनन्द महसूस किया जाता है । क्या उसी में आपका वास्तविक हित है ? ऐसे आचरण से तो कभी भी हित सम्भव नहीं है । अतः इस प्रकार पाप क्यों करते हैं । आप को कुछ समय तो पारलौकिक सुधार हेतु भक्ति भजन में लगाना ही चाहिये । क्योंकि जल में डूबे हुये घडे के समान जिन्दगी एक दिन में ही मृत्यु का बहाना लेकर समाप्त हो सकती है । क्या इसमें कोई संदेह है ?
ऐश्वर्य कभी स्थायी नहीं होता । अतः कुछ दिन के लिये प्राप्त हुये अस्थिर ऐश्वर्य में आसक्त न होकर मनुष्य को अपनी बुद्धि धर्माचरण और साथ साथ परलोक सुधार में भी लगानी चाहिये । धन सम्पत्ति आदि तो क्षण भर में ही नष्ट हो जाता है । क्योंकि धन को अधीन रखना मनुष्य के हाथ की बात नहीं है । मन को लुभाने वाली सुन्दर स्त्रियां एक बार को सत्य हो सकती है । धन सम्पत्ति भी सत्य हो सकती है । किन्तु यह जीवन तो चंचला स्त्री के काम कटाक्ष की भांति ही असत्य है । शरीर में तेजी से आता बुडापा मुंह फ़ाडे शेर के समान भयभीत करता है । रोग शत्रु की भांति शरीर में उत्पन्न होते ही रहते हैं । आयु फ़ूटे हुये घडे से रिसते जल के समान शीघ्रता से खत्म होती ही जा रही है । फ़िर भी इस संसार में कोई भी मनुष्य अपने लिये ही आत्महित चिंतन में प्रवृत्त नहीं होता । ये कैसी दुख की बात है । क्या इसमें कोई संदेह है ?
जो मनुष्य परायी स्त्रियों में मातृभाव रखता है । जो दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है ।और सभी प्राणियों में अपने ही स्वरूप का दर्शन ( आत्मदर्शन ) करता है । वही सच्चा साधु है । जिसके पास धन है । उसी के मित्र एवं बन्धु बान्धव है । वही इस संसार में पुरुष है । और वही धन सम्पन्न व्यक्ति है ।
धन रहित होने पर मनुष्य को अपने ही मित्र पुत्र स्त्री तथा परिवार वाले त्याग देते हैं । धनवान होने पर वे सब पुनः उसके पास लौट आते हैं । क्योंकि इस संसार में धन को ही सब कुछ माना जाता है । क्या इसमें कोई संदेह है ?
आपत्तिकाल आने पर मनुष्य को दुखी नहीं होना चाहिये । तब उसे सम बुद्धि । प्रसन्न आत्मा । तथा सुख दुख में समान रहना चाहिये । धैर्यवान मनुष्य कष्ट प्राप्त करके भी दुखी नहीं होते । क्योंकि राहु के मुख में प्रविष्ट हुआ चन्द्रमा क्या फ़िर से उदय नहीं होता ? शरीर के लालन पालन में ही लगे रहने वाले मनुष्य के प्रति धिक्कार है । धिक्कार है । मनुष्य को धनहीन होने से क्षीण हुये शरीर के प्रति भी दुख नहीं करना चाहिये । क्योंकि सब जानते हैं । कि पतिवृता पत्नी सहित पांडव और युधिष्टर ने अपने आपत्तिकाल के दुख से मुक्त होकर पुनः सुख प्राप्त किया था । अतः अनुकूल समय की प्रतीक्षा धैर्य के साथ करनी चाहिये । क्या इसमें कोई संदेह है ? अर्थात इसमें कोई संदेह नहीं है ।

बुधवार, अगस्त 11, 2010

वैसी ही उसकी परलोक गति भी होती है ।

इस मर्त्य लोक में आत्म ग्यानियों का शासक गुरु । दुरात्माओं का शासक राजा । और गुप्त रूप से पाप करने वालों का शासक सूर्य का पुत्र यम है । अपने पाप का प्रायश्चित न करने पर जीव को अनेक प्रकार के नरक प्राप्त होते हैं । तत्पश्चात नरक की यातनाओं को भोगने के बाद प्राणी मर्त्य लोक में जन्म लेते हैं । मानव योनि में जन्म लेकर भी वे अपने पूर्व के पापों से चिह्नित रहते हैं । जैसे पिछले जन्म का झूठ बोलने वाला फ़िर से जन्म लेने पर हकलाकर बोलने वाला होता है । इन्द्रियों के पाप के विषय करके झूठ बोलने वाला गूंगा ।महात्मा आदि को मारने वाला कोढी । शराब पीने वाला । काले रंग के दांत वाला । गुरु पत्नी गामी चर्म रोगी । पापियों से सम्बन्ध रखने वाला नीच योनि में जन्म लेता है । दान न देने वाला निर्धन । कक्ष को जलाने वाला जुगनू । पात्र को विध्या न देने वाला वैल । दूसरे को वासी अन्न देने वाला कुत्ता । फ़लों की चोरी करने वाले की संतान की मृत्यु हो जाती है । मरने के बाद वह बन्दर की योनि में जाता है । फ़िर वैसा ही मुख प्राप्त करके मानव योनि में उत्पन्न होता है । पहले संयास लेकर फ़िर से ग्रहस्थ हो जाने वाला मरुभूमि का पिशाच बनता है । युवावस्था को प्राप्त न हुयी कन्या से सम्भोग करने वाला सर्प बनता है ।
रानी के साथ चुपके से सम्भोग करने वाला दंष्ट्री होता है । गुरु पत्नी से सम्भोग करने वाला गिरगिट होता है । इस प्रकार दूसरे का थोडा या बहुत किसी भी प्रकार जो कुछ भी मनुष्य बुरा व्यवहार करता है । वह उस पाप से निश्चय ही तिर्यक योनि ( कीट पतंगा आदि ) में जाता है । ये पूर्व जन्म के कुछ चिह्न तो होते ही हैं । इसके अतिरिक्त भी बहुत से चिह्न होते है । जो अपने अपने कर्म के अनुसार प्राणी के शरीर में उपस्थित होते हैं । ऐसा पापी अनेको दुख भोग कर के । नरक भोग कर के । बचे कर्म फ़ल के अनुसार इन योनियों में जन्म लेता है । उसके बाद फ़िर से मृत्यु हो जाने पर जब तक उसके शुभ और अशुभ कर्म समाप्त नहीं हो जाते । तब तक सभी योनियों में उसका बार बार जन्म मृत्यु होती ही रहती है । इसमें कोई संशय नहीं है । जब आदमी और औरत के सम्भोग से गर्भ में शुक्र और रज स्थापित हो जाता है । तब पंच भूतों से समन्वित होकर यह पंचभौतिक शरीर जन्म लेता है । इसके बाद उसमें इन्द्रियां मन प्राण ग्यान आयु सुख धैर्य धारणा प्रेरणा दुख मिथ्या अहंकार यत्न आकृति रंग राग द्वेष और उत्पत्ति विनाश ये सब उस अनादि आत्मा को सादि मानकर पंचभौतिक शरीर के साथ उत्पन्न होते हैं । उस समय वह शरीर पूर्व कर्मों से घिरा हुआ गर्भ में बडता है । चार प्रकार की चौरासी लाख योनियों में जीवों का इस प्रकार के परिवर्तन का चक्र निरन्तर घूमता ही रहता है । उसी चक्र में शरीर धारियों की उत्पत्ति और विनाश होता है । अपने
धर्म का पालन करने से प्राणियों को उच्च गति और अधर्म करने से नीच गति प्राप्त होती है । देव और मानव योनि में जो दान और भोग आदि की क्रियाएं दिखाई देती हैं । वे सब कर्मों के फ़ल हैं । घोर अकर्म तथा काम क्रोध से अर्जित अशुभ पापाचार से नरक प्राप्त होता है । तथा वहां से जीव का उद्धार नहीं होता । क्या इसमें कोई संशय है ? अर्थात इसमें कोई संशय नहीं है । भारत वर्ष में मानव योनि तेरह जातियों में विभक्त है । यदि उसको प्राप्त करके मनुष्य अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उत्सर्ग करता है तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता । राग द्वेष रूपी मल को दूर कर देने वाले । ग्यान रूपी जलाशय में । सत्य रूपी जल से युक्त । जिसने मानस तीर्थ में स्नान कर लिया । वह फ़िर कभी पापों से संलिप्त नहीं होता । देवता भगवान कभी पत्थर और काष्ठ की मूर्ति में नहीं रहते । वे तो प्राणी के भाव में रहते हैं । इसलिये सद भाव से युक्त भक्ति का ही आचरण करना चाहिये । मछुआरे प्रतिदिन सुबह ही नर्मदा सरयू गंगा यमुना जैसी पवित्र नदियों का दर्शन करते हैं । स्नान भी करते हैं । किन्तु क्या उन्हें शिवलोक प्राप्त हो सकता है क्या उनकी आगे की सदगति हो सकती है ? नहीं । क्योंकि उनकी चित्तवृति दूसरी ओर बलबान होती है । मनुष्य़ के चित्त में जैसा विश्वास होता है । वैसा ही उसे कर्म फ़ल प्राप्त होता है । वैसी ही उसकी परलोक गति भी होती है ।
इसी मनुष्य जीवन मे प्राणियों के लिये मोक्ष मार्ग है ।इसी मनुष्य जीवन मे प्राणियों के लिये स्वर्ग मार्ग भी है । ये दोनों अलग है । प्रायः मनुष्य स्वर्ग को ही मोक्ष मान लेते है । अतः मनुष्य को जीवन और मरण इन दो तत्वों पर सदा ही ध्यान देना चाहिये । दस कूप के समान एक बाबली होती है । दस बाबली के समान एक सरोवर होता है । दस सरोवर के समान वह पोंसरा होती है । जो वापी जल रहित वन अथवा देश में किसी के द्वारा बनवायी जाती है । जो दान निर्धन को दिया जाता है । तथा जो दया प्राणियों पर की जाती है । उसके पुन्य से उन्हें करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है । व्यर्थ के कार्यों को छोडकर निरन्तर धर्माचरण करना चाहिये । इस प्रथ्वी पर दान दम और दया ये तीन सार कर्म हैं । दरिद्र । सज्जन ब्राह्मण को दान । अनाथ प्रेत ( जिस मृतक का किसी के द्वारा संस्कार न किया गया हो ) का संस्कार । करोडों यग्य का फ़ल देता है । इसमें कोई संशय है ? अर्थात इसमें कोई संशय नही है ।

वैतरणी नाम की महा नदी

यमलोक के रास्ते में जो वैतरणी नाम की महा नदी पडती है । वह बेहद अगाध दुस्तर और देखने मात्र से पापियों को भयभीत करने वाली है । वह पीव और रक्त जैसे जल से भरी हुयी है । मांस के लोथडों जैसे कीचड से भरी हुयी । और मृत्यु के बाद तट पर आये हुये पापियों को देखकर । ये उन्हें भयभीत करने वालेअनेक रूप धारण कर लेती है । जैसे कडाही में अग्नि पर रखा हुआ घी खौलता है । वैसे ही पापी के उतरते ही इसका जल खौलने लगता है । इसका जल कीटाणुओं और कटीली सूंड जैसे जीवों से भरा हुआ है । सूंस घडियाल । वज्रदन्त जैसे मांसभक्षक हिंसक जीवों से यह नदी भरी हुयी है । प्रलय के समय बारह सूर्य उदयहोकर जिस प्रकार विनाशलीला करते हैं । वैसे ही ये सूर्य वहां सदैव तपते रहते हैं । तब उसके महाताप में जलते हुये पापी दुखी होकर हा माता हा पिता आदि चिल्लाते हुये विलाप करते हैं । वे जीव उस महाभयंकर धूप में इधर उधर भागते हैं । उस बेहद दुर्गन्ध युक्त जल में डुबकी लगाते हैं । और आत्मग्लानि से दुखी होते हैं । धर्मात्माओं को इस नदी में रुकना नहीं होता । वैतरणी नाम की एक लाल रंग और काले रंग की गाय होती है । अपने जीवन में उसका दान करने वाले और अन्य परोपकार करने वालों को वहां उपस्थित नाविक द्वारा सुख से वह नदी पार करा के आगे पहुंचा दिया जाता है । मकर संक्रान्ति और कर्क संक्रान्ति । व्यतीपात योग । दिनोदय । सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण । अमावस्या अथवा पुन्यकाल आने पर दान दिया जाता है । या मन में दान देने की जब श्रद्धा और अवसर आ जाय । वही दान का सर्वोत्तम समय है । क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है । शरीर का कोई भरोसा नहीं । धन भी सदा रहने वाला नहीं । मृत्यु जन्म के समय से ही छाया रूप होकर पीछे चलती है । ( धूप आदि में शरीर की जो छाया दिखाई देती है । वह मृत्यु का रूप है । मृत्य का समय आ जाने पर उस व्यक्ति को ये छाया दिखाई नहीं देती । देव प्रेत आदि योनियों की भी छाया दिखाई नहीं देती । क्योकि इनकी मृत्यु नही होती बल्कि समय पूरा होने पर उन्हें उस लोक से गिरा दिया जाता है । हम लोगों ने बहुत ऊपर आकाश में जब कभी चमकीला प्रकाश नीचे टूटता हुआ देखा होगा । जिसे भारत और अन्य देशों में तारा टूटना भी कहते हैं । ये उच्च लोकों से देवता आदि समय पूरा होने पर गिरा दिये जाते हैं । वही कुछ सेकंड के लिये हमें दिखाई देता है । ) सतकर्म और दान के प्रभाव से प्राणी को एहिक और पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है । स्वस्थ जीवन में दान देने से हजार गुना । रोग अवस्था में स्वार्थवश दान देने से सौ गुना । और मृत्यु के पश्चात मृतक के निमित्त दिया गया दान उतना ही मिलता है । जितना दिया गया हो । अतः मनुष्य को यथासंभव अपने ही हाथ से दान करना चाहिये । मरने के बाद कौन किसके लिये क्या दान और उपकार करेगा । इसमें भारी संशय ही है । इस नश्वर देह से स्थिर कर्म करना चाहिये । ये प्राण और ये जीवन एक मेहमान की भांति है । कब छोड जायेंगे । ये किसको पता है । अर्थात कोई पता नहीं ? धर्म की जीत होती है । अधर्म की नहीं । सत्य की जीत होती है । असत्य की नहीं । क्षमा की जीत होती है । क्रोध की नहीं । जिसकी बुद्धि इस प्रकार की होकर स्थिर भाव हो जाती है । उसकी कभी दुर्गति नहीं होती ।

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

ये छह प्रकार के स्नान हैं ।

रात में सोये हुये व्यक्ति के मुख से निरंतर लार आदि अपवित्र मल गिरते हैं । अन्य स्थानों से भी मल की निकासी होती है । इसलिये पूरा शरीर ही अपवित्र हो जाता है । इसलिये सुबह शौचादि का बाद स्नान करना बेहद लाभदायक होता है । सुबह स्नान करने से अलक्ष्मी । कालकर्णी यानी विघ्न डालने वाली अनिष्टकारी शक्तिया । दुस्वप्न और दुर्विचार चिंतन से होने वाले पाप धुल जाते हैं । बिना स्नान के किये गये कार्य सफ़ल नहीं होते । अतः यथासंभव स्नान अवश्य करना चाहिये ।
किसी प्रकार से अशक्त होने पर बिना सर पर जल डाले ही स्नान कर लें । अन्य स्थिति में गीले वस्त्र से शरीर को ठीक से पोंछ लें । इसे कायिक स्नान कहते हैं । बाह्य । आग्नेय । वायव्य । दिव्य । वारुण । यौगिक । ये छह प्रकार के स्नान हैं । मन्त्र सहित कुश के द्वारा जल से स्नान करना बाह्य स्नान है ।
सिर से पैर तक भस्म के द्वारा अंगो को लेपन करना यह आग्नेय स्नान है । गोधूलि से शरीर को पवित्र करना
वायव्य स्नान है । यह उत्तम स्नान है । धूप में होने वाली बरसात में किया गया स्नान दिव्य स्नान कहलाता
है । जल में अवगाहन करना वारुण स्नान है । योग द्वारा ध्यान क्रिया में स्नान करना यौगिक स्नान है ।यौगिक स्नान योगी आदि ही कर पाते हैं । इसे दूसरे शब्दों में आत्मतीर्थ कहते हैं । स्नान से पहले दूध युक्त वृक्षों की लकडी । मालती । अपामार्ग । बिल्ब । करवीर । कनेर की दातौन लेकर उत्तर या पूर्व दिशा की ओर स्वच्छ स्थान में दांत साफ़ करने चाहिये ।

सर्प द्वारा डसने पर ..?

शमशान । वल्मीक या बांबी । पर्वत । कुंआ । वृक्ष के कोटर । इन स्थानों में स्थित सर्प के काट लेने पर यदि दांत लगे स्थान पर तीन प्रच्छन रेखाएं बन जाती है । तो वह आदमी जीवित नहीं बचेगा । षष्टी तिथि । कर्क और मेष राशि में आने वाले नक्षत्र । मूल ।अश्लेषा । मघा आदि क्रूर नक्षत्र में भी सर्प द्वारा काटने से आदमी जीवित नहीं रहता । बगल । कमर । गला । सन्धि स्थान । मस्तक । कनपटी के अस्थिभाग । उदर । में सांप द्वारा काटने पर आदमी जीवित नहीं रहता । सर्पदंश के समय । दण्डी । शस्त्रधारी । भिखारी । तथा नग्न आदमी या औरत दिखाई दे तो उसे काल का दूत ही समझो । हाथ । मुख । गर्दन । पीठ में सर्प द्वारा काटने पर भी आदमी जीवित नहीं रहता । दिन के प्रथम भाग के पूर्व । अर्धयाम । का भोग सूर्य करता है । इस सूर्य भोग के बाद गणनाक्रम में जो ग्रह आते है । उन ग्रहो के द्वारा क्रम अनुसार शेष यामों का भोग होता है । कालगति में प्रत्येक दिन छः परिवर्तनों के साथ शेष ग्रहों का भोग माना जाता है । ज्योतिषियों ने कालचक्र के आधार पर रात्रि में शेषनाग । सूर्य । वासुकि नाग । चन्द्र । तक्षक नाग । मंगल । कर्कोटक । बुध । पद्म । गुरु । महापद्म नाग । शुक्र । शंख नाग । शनि । कुलिक । राहु को माना गया है ।
रात या दिन में ब्रहस्पति का भोगकाल आने पर सर्प देवताओं का भी अंत कर देने वाला होता है । अतः इस समय काटा आदमी किसी भी हालत में नहीं बच सकता । दिन में शनि की वेला होने पर राहु अशुभ धर्म से संयुक्त होता है । इसलिये वह अपने याम भोग और सन्धिकाल में अवस्थित में काल यानी यमराज की तरह गति वाला होता है । रात और दिन का मान तीस । तीस घटी का होता है । इस मान के अनुसार बने कालचक्र में । चन्द्रमा प्रतिपदा तिथि को पाद अंगुष्ठ । द्वितीया पैर से ऊपर । तृतीया गुल्फ़ । चतुर्थी जानु । पंचमी लिंग । छठी नाभि । सप्तमी ह्रदय । अष्टमी स्तन । नवमी कण्ठ । दशमी नासिका । एकादशी नेत्र । द्वादशी कान । त्रयोदशी भोंह । चर्तुदशी कनपटी । पूर्णिमा और अमावस्या को मस्तक पर निवास करता है । पुरुष के दांये भाग में तथा स्त्री के बांये भाग में चन्द्रमा की स्थिति होती है । जिस अंग में चन्द्र स्थित होता है । उस अंग में सर्प द्वारा डसने पर आदमी बच सकता है । यधपि सर्पदंश से उत्पन्न मूर्छा बहुत देर तक रहती है । फ़िर भी शरीर मर्दन से उसमें काफ़ी लाभ होता है । और वह दूर हो जाती है ।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...