गुरुवार, दिसंबर 30, 2010

द्रौपदी

जब Pandav तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई । तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा । Dronachary को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने insult का स्मरण हो आया । और उन्होंने कहा । राजकुमारों । यदि तुम गुरुदक्षिणा देना चाहते हो । तो पाञ्चाल नरेश Drupad को बन्दी बनाकर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो । यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी । गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने अपने अस्त्र शस्त्र लेकर पाञ्चाल देश की ओर चले ।
पाञ्चाल पहुँचने पर Arjun ने कहा । Gurudev । आप पहले कौरवों को द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये । यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे । तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे । Guru की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पाञ्चाल पर आक्रमण कर दिया । दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा । किन्तु अन्त में kourav परास्त होकर भाग निकले । कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण कर दिया । भीम तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष द्रुपद की सेना हार गई । अर्जुन ने द्रुपद को बन्दी बना लिया । और द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये ।
द्रुपद को बन्दी देखकर द्रोणाचार्य ने कहा । द्रुपद । अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया । मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझकर तुम्हारे पास आया था । किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था । अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो ? द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया । और क्षमायाचना करते हुये बोले । द्रोण । आपको मित्र न मानना मेरी भूल थी । और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है । मैं तथा मेरा राज्य दोनों अब आपके आधीन हैं । अब आपकी जो इच्छा हो करें । द्रोणाचार्य ने कहा । तुमने कहा था । कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है । अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये । तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ । इतना कहकर द्रोणाचार्य ने ganga के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया । और शेष को स्वयं रख लिया ।
द्रोण से पराजित होने के उपरान्त द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये । और उन्हें नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे । इसी चिन्ता में वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मण बस्ती में जा पहुँचे । वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई । द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया । एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा । तब बड़े भाई याज ने कहा । इसके लिये आप 1 विशाल यज्ञ करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये । जिससे वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान देंगे । महाराज ने याज और उपयाज से कहे अनुसार यज्ञ करवाया । प्रसन्न होकर अग्निदेव ने उन्हें 1 ऐसा पुत्र दिया । जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था । उसके पश्चात् उस यज्ञकुण्ड से 1 कन्या उत्पन्न हुई । जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे । भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं । तथा उसका वर्ण श्यामल था । उसके उत्पन्न होते ही 1 आकाशवाणी हुई । कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है । बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया ।
पाण्डवों को एकचक्रा नगरी में रहते कुछ time व्यतीत हो गया । तो 1 दिन भ्रमण करता हुआ 1 ब्राह्मण आया । पाण्डवों ने पूछा । देव । आपका आगमन कहाँ से हो रहा है ? ब्राह्मण ने उत्तर दिया । मैं महाराज द्रुपद की नगरी । पाञ्चाल से आ रहा हूँ । वहाँ पर द्रुपद की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर के लिये । अनेक देशों के राजा महाराजा पधारे हुये हैं ।
उस ब्राह्मण के प्रस्थान करने के पश्चात । पाण्डवों से भेंट करने वेदव्यास आ पहुँचे । Vyas ने पाण्डवों को आदेश दिया । कि तुम लोग पाञ्चाल जाओ । वहाँ द्रुपद कन्या पाञ्चाली का स्वयंवर होने जा रहा है । वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है । क्योंकि पूर्वजन्म में उसने शंकर की तपस्या की थी । और उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर । Shiv ने उसे अगले जन्म में 5 उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था । वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है । तुम लोग वहाँ जाकर उसे प्राप्त करो । इतना कहकर व्यास वहाँ से चले गये ।
स्वयंवर में अनेक देशों के राजा महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे । 1 ओर श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम तथा यदुवंशियों के साथ विराजमान थे । वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जाकर बैठ गये । कुछ ही देर में द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उस सभा में पहुँचीं । धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा । हे राजा महाराजा एवं अन्य गणमान्य जन । इस मण्डप के ऊपर बने उस घूमते हुये यंत्र पर ध्यान दीजिये । उस यन्त्र में 1 fish यंत्र के साथ घूम रही है । आपको स्तम्भ के नीचे रखे तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये बाण चलाकर मछली की आँख को निशाना बनाना है । सफल निशाना लगाने वाले से द्रौपदी का विवाह होगा ।
1 के बाद 1 सभी ने fish पर निशाना साधने का प्रयास किया । किन्तु सफलता हाथ न लगी । और वे लज्जित होकर अपने स्थान में लौट आये । इन असफल लोगों में जरासंध । शल्य । शिशुपाल तथा दुर्योधन । दुशासन आदि कौरव भी सम्मिलित थे । कौरवों के असफल होने पर कर्ण ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया । किन्तु द्रौपदी बोल उठीं । यह सूतपुत्र है । इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती । कर्ण ने लज्जित होकर धनुष बाण रख दिया । उसके पश्चात् अर्जुन ने निशाना लगाने के लिये धनुष उठा लिया । 1 ब्राह्मण को राजकुमारी के स्वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ । किन्तु ब्राह्मणों के क्षत्रियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कारण से उन्हें कोई रोक न सका । अर्जुन ने तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये । 1 ही बाण से मछली की आँख को भेद दिया । द्रौपदी ने आगे बढ़कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दिया । 1 ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त क्षत्रिय राजा महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित होकर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया । अर्जुन की सहायता के लिये शेष पाण्डव भी आ गये । और पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा । श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले ही पहचान लिया था । इसलिये उन्होंने बीचबचाव करके युद्ध शान्त करा दिया । दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया । कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही रहा होगा । और उसका साथ देने वाले शेष पाण्डव रहे होंगे । वारणावत के लाक्षागृह से पाण्डवों के बच निकलने पर उसे अत्यन्त आश्चर्य होने लगा । पाण्डव द्रौपदी को साथ लेकर वहाँ पहुँचे । जहाँ वे mother कुन्ती के साथ निवास कर रहे थे । द्वार से ही अर्जुन ने अपनी माता से कहा । mother । आज हम आपके लिये 1 अद्भुत भिक्षा लेकर आये हैं । उस पर कुन्ती ने भीतर से ही कहा । पुत्रों । तुम लोग आपस में मिलबाँट उसका उपभोग कर लो । बाद में यह ज्ञात होने पर । कि भिक्षा bride के रूप में हैं । कुन्ती को अत्यन्त पश्चाताप हुआ । किन्तु mother के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये । कुन्ती ने 5 पाण्डवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया ।
पाण्डवों के द्रौपदी को साथ लेकर अपने निवास पर पहुँचने के कुछ time पश्चात उनके पीछे पीछे कृष्ण भी वहाँ पर आ पहुँचे । कृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणस्पर्श किये । और पाण्डवों से गले मिले । तब युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा । द्वारिकाधीश । आपने इस अज्ञातवास में हमें पहचान कैसे लिया ? कृष्ण ने उत्तर दिया । भीम और अर्जुन के पराक्रम को देखने के पश्चात । भला मैं आप लोगों को कैसे न पहचानता । सभी से मुलाकात करके कृष्ण वहाँ से द्वारिका चले गये । फिर पाँचों भाइयों ने भिक्षावृति से भोजन सामग्री एकत्रित किया । और उसे लाकर माता kunti के सामने रख दिया । कुन्ती ने द्रौपदी से कहा । देवि । इस भिक्षा से पहले देवताओं के अंश निकालो । फिर ब्राह्मणों को भिक्षा दो । तत्पश्चात आश्रितों का अंश अलग करो । उसके बाद जो शेष बचे । उसका आधा भाग भीम को । और शेष आधा भाग हम सभी को भोजन के लिये परोसो । Dropadi ने कुन्ती के order का पालन किया । भोजन के पश्चात कुशासन पर मृगचर्म बिछाकर वे सो गये । द्रौपदी mother kunti के पैरों की ओर सोई ।
द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद । धृष्तद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था । कि वे ब्राह्मण Pandav ही हैं । उनकी परीक्षा के लिये द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को भेजकर उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलवा लिया । राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया । किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई । किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये । तो वहाँ रखे अस्त्र शस्त्रों उन सभी ने बहुत अधिक रुचि प्रदर्शित किया । और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया । उनके क्रियाकलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया । कि ये ब्राह्मण के रूप में योद्धा ही हैं । द्रुपद ने युधिष्ठिर से पूछा । आर्य । आपके पराक्रम को देखकर मुझे विश्वास हो गया है । कि आप लोग ब्राह्मण नहीं हैं । कृपा करके आप अपना सही परिचय दीजिये । उनके वचनों को सुनकर युधिष्ठिर ने कहा । राजन । आपका कथन सत्य है । हम पाण्डु पुत्र पाण्डव हैं । मैं युधिष्ठिर हूँ । और ये भीमसेन । अर्जुन । नकुल एवं सहदेव हैं । हमारी माता कुन्ती आपकी पुत्री द्रौपदी के साथ आपके महल में हैं । युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न हुये । और बोले । आज god ने मेरी सुन ली । मैं चाहता था कि मेरी Daughter का विवाह पाण्डु के पराक्रमी पुत्र Arjun के साथ ही हो । मैं आज ही अर्जुन और द्रौपदी के विधिवत विवाह का प्रबन्ध करता हूँ । इस पर युधिष्ठिर ने कहा । राजन । द्रौपदी का विवाह तो हम 5 भाइयों के साथ होना है । यह सुनकर द्रुपद आश्चर्यचकित हो गये । और बोले । यह कैसे सम्भव है ? 1 पुरुष की अनेक पत्नियाँ अवश्य हो सकती हैं । किन्तु 1 स्त्री के 5 पति हों ऐसा न कभी देखा गया और न सुना गया । युधिष्ठिर ने कहा । राजन । न तो मैं कभी मिथ्या भाषण करता हूँ । और न ही कोई कार्य धर्म या शास्त्र विरुद्ध करता हूँ । हमारी mother ने हम सभी भाइयों को द्रौपदी का उपभोग करने का आदेश दिया है । और मैं माता की आज्ञा की अवहेलना कदापि नहीं कर सकता । इसी समय वहाँ पर व्यास पधारे । और उन्होंने द्रुपद को द्रौपदी के पूर्वजन्म में तपस्या से प्रसन्न होकर Shankar के द्वारा 5 पराक्रमी पति प्राप्त करने के वर देने की बात बताई । व्यास के वचनों को सुनकर द्रुपद का सन्देह समाप्त हो गया । और उन्होंने अपनी पुत्री द्रौपदी का पाणिग्रहण संस्कार पाँचों पाण्डवों के साथ धूमधाम के साथ कर दिया । इस विवाह में विशेष बात यह हुई कि नारद ने स्वयं पधार कर द्रौपदी को प्रतिदिन कन्यारूप हो जाने का आशीर्वाद दिया ।
पाण्डवों के जीवित होने । तथा द्रौपदी के साथ विवाह होने की बात तेजी से सभी ओर फैल गई । हस्तिनापुर में इस समाचार के मिलने पर । दुर्योधन और उसके सहयोगियों के दुख का पारावार न रहा । वे पाण्डवों को उनका राज्य लौटाना नहीं चाहते थे । किन्तु भीष्म । विदुर । द्रोण आदि के द्वारा धृतराष्ट्र को समझाने तथा दबाव डालने के कारण उन्हें पाण्डवों को राज्य का आधा हिस्सा देने के लिये विवश होना पड़ गया । विदुर पाण्डवों को बुला लाये । धृतराष्ट्र । द्रोणाचार्य । कृपाचार्य । विकर्ण । चित्रसेन आदि सभी ने उनकी अगवानी की । और राज्य का खाण्डव वन नामक हिस्सा उन्हें दे दिया गया । पाण्डवों ने उस खाण्डव वन में 1 नगरी की स्थापना करके उसका नाम इन्द्रप्रस्थ रखा । तथा इन्द्रप्रस्थ को राजधानी बनाकर राज्य करने लगे । युधिष्ठिर की लोकप्रियता के कारण कौरवों के राज्य के अधिकांश प्रजाजन पाण्डवों के राज्य में आकर बस गये ।
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