मंगलवार, जनवरी 31, 2012

मायावती क्यों भक्तों को भटकाती है

75 प्रश्न - महाराज जी आपने कृपा करके इस अधम को उपदेश देकर अपना लिया । परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि भजन ध्यान में मेरा मन ही नहीं लग पाता । सुमिरन में रस मिलने की बात ही दूर है । बडी निराशा होती है । क्या करूं ?
उत्तर - सन्तों का कहना है कि पहले पहल भजन, ध्यान करने में मन यदि न लगे । तो घबराना नहीं चाहिये । और भजन, सुमिरन, ध्यान की प्रक्रिया को छोड भी नहीं देना चाहिये । क्योंकि कहा गया है - करत करत अभ्यास के । जडमति होत सुजान ।
इसलिये भजन, सुमिरन, ध्यान को धीरे धीरे करते रहना चाहिये । भजन, सुमिरन, ध्यान को करते करते साधक, साधक से सिद्ध हो जायेगा । इसको इस प्रकार समझ लीजिये कि जो बालक पहले पहल पढने के लिये पाठशाला ( विधालय ) में जाता है । उसे तुरन्त पढना नहीं आ जाता है । वह धीरे धीरे माता । पिता । भाई । बन्धु । तथा अध्यापक के पढाते पढाते कोशिश करके पढता जाता है । अर्थात अपने को पढने में लगाता है । और रोज ब रोज पढने जाने से वह पढने लग जाता है । धीरे धीरे उसे पढाई में रूचि बढने लगती है । तो फ़िर उसकी लगन पढाई में इतनी लग जाती है कि यदि कोई उसे पढने से रोके । तो भी नहीं रोक सकता । बल्कि दिन रात पूरी लगन के साथ पढता जाता है । इसी प्रकार साधक का मन पहले पहल नहीं लगता । लेकिन धीरे धीरे मन लगाकर भजन, सुमिरन, ध्यान नियमित, नियमानुसार करता जाता है । तो अभ्यासी अभ्यास में घुसता जाता है । और जब वह भजन, सुमिरन, ध्यान के आनन्द में डूबता जाता है । यानी उसे रस मिलने लगता है । तो प्रेम व चाव के साथ अभ्यास में रत हो जाता है । फ़िर दिन प्रतिदिन अपने अभ्यास

को बढाता जाता है । और एक दिन ऐसा आ जाता है कि सांसारिक काम काज करते करते भी उसका अभ्यास अनवरत यानी दिन रात चलता रहता है ।
आगे चलकर नित्य प्रति भजन, सुमिरन, ध्यान किये बिना उन्हें चैन नहीं पडता । अत: जब तक भजन, सुमिरन, ध्यान की ऐसी आदत न पड जाय । और वह आदत पक्की न हो जाय । तब तक प्रत्येक अभ्यासी को चाहिये कि वह अभ्यास करने में सुस्त हो । या तेज । पर अपना अभ्यास नित्य प्रति नियमानुसार अवश्य जारी रखे ।
भजन में रस और आनन्द का अनुभव तब होता है । जब मन और सुरत अन्दर में लगें । और वहां ठहरने लगें । अत: इस बात का विशेष ध्यान रखे कि अभ्यास के समय मन दुनिया के ख्यालों में न फ़ंसे ।
मन और सुरत को लगाने का एक और उदाहरण यह है कि जब कोई व्यक्ति भोजन करने को बैठता है । तो खायी जाने वाली वस्तु का स्वाद अपनी जिह्ना द्वारा अनुभव करता है । यदि उसका ध्यान कहीं और लगा हो । तो उसको खायी हुई वस्तु का स्वाद या तो आएगा ही नहीं । और यदि आयेगा भी । तो बहुत कम । इसी तरह परमार्थी अभ्यास के बारे में भी है । श्री सदगुरू देव जी महाराज कहते हैं कि आन्तरिक अभ्यास भोजन की तरह स्थूल नहीं है । वह तो बहुत ही सूक्ष्म और सुकोमल है । जब स्थूल वस्तु के स्वाद का पता बिना उधर को ध्यान लगाये नहीं मालूम होता । तो सूक्ष्म और सुकोमल आन्तरिक अभ्यास का आनन्द बिना मन और सुरत को नाम रूप के तरफ़ जमाये कैसे प्राप्त हो सकता है । जैसे खाते समय खाने की वस्तु जिह्ना से मिली । परन्तु मन व सुरत कहीं और लगी होने के कारण उस वस्तु का स्वाद न आया । इसी प्रकार अभ्यास 


करते समय मन और सुरत किसी आन्तरिक चक्र तक पहुंचे । भजन सुमिरन, ध्यान के अभ्यास से भी थोडा बहुत मिले । परन्तु यदि ध्यान दूसरी ओर लगा है । अर्थात संसार या उसके विचारों में फ़ंसा है । तो भजन, सुमिरन, ध्यान का आनन्द कैसे प्राप्त हो सकता है ? अत: यह आवश्यक है कि अभ्यास के समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाय कि मन व सुरत दुनियां तथा उसके विचारों से हटकर सम्पूर्ण रूप से भजन, सुमिरन, ध्यान जो श्री सदगुरू देव जी महाराज ने बताया हो । उसी में तन्मय होकर लगें । या अभ्यास करें । तब रस व आनन्द आयेगा ।
पूरण सदगुरू की कृपा से । नाम की दात यह है मिलती । जिसके सुमिरन से जन्मों की । बिगडी किस्मत है बनती ।
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जो तत्त्वग्यान का इच्छुक व्यक्ति । विचार यही अपनायेगा मन से । उत्तम कल्याण प्राप्त करेगा । रहेगा सुखी गुरूदेव भजन से ।
सन्तुष्ट हो जायेगा वह निश्चय । नहीं भटकेगा जहां तहां जग में । सदगुरू देव दया बरसायेंगे । ना कोई और आयेगा मन में ।
भजन और ध्यान में मन न लगने पर कोशिश और मालिक की दया की याचना करें ।
कुछ साधक यह कोशिश करते हैं कि मुझे गुरू की भक्ति जल्दी प्राप्त हो जाय । वे चाहते हैं कि भजन, ध्यान में उनका मन जल्दी से जल्दी लगने लग जाय । और उसका रस उन्हें मिलने लग जाय । यदि ऐसा न हो । तो उनके मन में निराशा आ जाती है । जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये । मालिक से दया की याचना करके अभ्यास करने से मन लगने लग जायेगा । भक्त व साधक को अपने 


कर्मों की सदा निरख परख करते रहना चाहिये । श्री सदगुरू देव जी महाराज ने जब हमें नाम मंत्र के सुमिरन व ध्यान करने की विधि बता दी । तो हमारा कर्तव्य बनता है कि अपने मन को एकाग्र करके शान्त वातावरण में बैठ कर भजन, सुमिरन, ध्यान नियमित नियमानुसार सदा करते रहना चाहिये । तथा समय और स्वास्थ्य देखकर थोडा थोडा बढाते रहना चाहिये । ऐसा करने से मालिक की दया से यानी श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया व कृपा से धीरे धीरे भजन, सुमिरन, ध्यान का कृम बढ भी जायेगा । और भजन, सुमिरन, ध्यान में रस भी मिलने लग जायेगा । इसी प्रकार प्रारम्भिक अभ्यासी को समय, योग्यता और मेहनत तीनों का सामना करना पडता है । इसमें जल्दी नहीं हो सकती ।
इन्हीं में से कुछ लोग यह भी समझते हैं कि हमने तो अपनी बागडोर श्री सदगुरू देव जी महाराज के हाथ में दे दिया है । वे अपनी कृपा से हमारा कार्य सिद्ध करेंगे । यानी हमारे मन और इन्द्रियों को संसार से मोडकर परमार्थ में लगा देंगे । अभ्यास के समय मन में जो तरंगे उठती हैं । उन्हें श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने दया से नहीं उठने देंगे । और अपनी कृपा से ही मेरे मन को भजन, सुमिरन, ध्यान में लगाकर अन्दर में आनन्द का अनुभव देने लगेंगे । तथा हमें भक्ति का रस मिलने लगेगा । अब सोचने की बात यह है कि जब तक पहली कक्षा का विधार्थी अपने गुरू अथवा अध्यापक के बताये हुए पाठ को याद नहीं करेगा । और उनके आदेश का पालन नहीं करेगा । तब तक उन्नति कैसे होगी ?
इसी तरह श्री सदगुरू देव जी महाराज ने जो भी युक्ति सांसारिक बाधाओं को हटाकर मन और सुरत को अन्तर्मुखी

बनाने के लिये बताई है । जब तक अभ्यासी उसका पालन नहीं करेगा । तब तक न तो आगे उन्नति ही कर सकेगा । और न श्री सदगुरू देव का कृपा पात्र ही बन सकेगा । जो विधार्थी जल्दी पाठ याद करके सुनाता है । उसके गुरू, शिक्षक, अध्यापक प्रसन्न रहते हैं । और आगे का पाठ बताकर शीघ्र उन्नति में उसकी सहायता करते हैं । इसलिये जो अभ्यासी नियम पूर्वक अभ्यास करते रहेंगे । और अपने मन तथा इन्द्रियों की सम्हाल रखेंगे । और जो नयी युक्ति उनको समझायी जावे । थोडी बहुत उसके अनुसार भी कार्यवाही करेंगे । तो थोडे समय में उनके अभ्यास में रस यानी भजन, सुमिरन, ध्यान में आनन्द मिलना आरम्भ हो जायेगा ।
साधक अभ्यास के समय अपनी सुरत को ऊपर की तरफ़ उन स्थानों पर ले जाने की कोशिश करे । जो श्री सदगुरू ने बताया है । वहां पहुंच कर श्री सदगुरू के बताये हुए मंत्र का भजन, सुमिरन, ध्यान सदा करते रहना चाहिये । ऐसा अभ्यास करते रहने से जब मन परिपक्व हो जाता है । यानी मन भजन, सुमिरन, ध्यान में रम जाता है । तो सुरत ऊपर की ओर खिंचती चली आती है । यदि अभ्यास ऐसे ही निरन्तर नियमित बना रहा । तो मन तथा सुरत का खिंचाव सदा ऊपर की ओर होता चला जाता है । यदि साधना का कृम टूटा । यानी नियमितता टूटी । या कोई अवरोध आया । तो साधना में विघ्न पड जाता है । तब उसमें थोडा सक्रियता बरतकर मन को खींचकर साधना में लगावे । तथा मालिक से दया की पुकार, गुहार लगावे कि - हे मेरे मालिक ! मेरे मन को अपने भजन, भक्ति में लगाने की कृपा करें । मालिक बडे दयालु होते हैं । वह अपनी दया और कृपा से साधक के मन की वृत्ति को 


बदलकर भजन, सुमिरन, ध्यान में सक्रियता को बढा देते हैं । यदि साधक उत्सुक रहे । और कोई बाधा न हो । तो मन खिंचाव ऊपर की तरफ़ होता जाता है । और तब भजन, सुमिरन, ध्यान में मन भी लगेगा । और रस तथा आनन्द भी आयेगा । इसका कारण यह है कि ऊंचे देश या ऊंचे मुकामों पर सुरत खिंचकर पहुंचती है । जो निचले देश की तुलना में अधिक जागृत, रसीला और आनन्द का स्थान है ।
साधक के मन में साधना के विषय में सन्तोष तभी बनता है । और सन्तोष की यह भावना उसके दिल में, उसके ह्रदय में तभी अपना आसन जमाती है । जब उसके ह्रदय में प्रभु के नाम का भजन, सुमिरन, ध्यान का तथा प्रभु की भक्ति का निवास हो जाता है । अर्थात मन और सुरत टिक कर उनके स्मरण में जब तन्मय हो जाते हैं । या सभी तरफ़ से मन एकाग्र होकर प्रभु के भजन, सुमिरन, ध्यान में लग जाता है । तभी साधक के मन में सन्तोष की भावना आती है । जब तक साधक के ह्रदय में नाम के भजन, सुमिरन, ध्यान को जमाने का पूरी तरह से भाव नहीं बनता । तब तक साधक को सन्तोष नहीं हो सकता । और जब तक ह्रदय में सन्तोष नहीं आ सकता । तब तक सन्तोष का निवास नहीं हो सकता । तब तक साधक सुख, आनन्द एवं रस पाने से वंचित ही रहता है ।
हरि का जस निधि लिया लाभ । पूरण भये मनोरथ साथ ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का सुमिरन, ध्यान एवं यशोगान की सच्ची निधि एवं सच्चे लाभ को पाकर सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । परिणाम स्वरूप सारा दुख भाग जाता है । और ह्रदय के अन्दर सुख का निवास हो जाता है । वे पूर्ण काम हो जाते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा से ह्रदय रूपी कमल खिल जाता है । जिन्होंने सन्त सदगुरू से नाम रूपी भक्ति रत्न प्राप्त किया है । उन्हें परम सुख की प्राप्त हुई है । क्योंकि उनके मन में भक्ति का भाव जाग गया है । अब वे क्यों माया के लिये इधर उधर भटकेंगे ।

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ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।
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