शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

क्योंकि खुद आप भी तो यही हैं ना

क्यों कल्पनाएं और सिद्धांत हमारे दिमाग में जड़ें बना लेते हैं ? क्यों हमारे लिए तथ्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाते । बजाय संकल्पनाओं के । सिद्धांतों के ? क्यों संकल्पनात्मक । सैद्धांतिक पक्ष तथ्यों की अपेक्षा इतना महत्वपूर्ण हो जाता है । क्या हम तथ्य को नहीं समझ पाते । या हम में इसकी सामर्थ्य ही नहीं है । या हम तथ्य का । सच का सामना करने से डरते हैं ? इसलिए आयडियाज । विचार । संकल्पनाएं । अनुमान तथ्य से पलायन का एक जरिया बन जाते हैं । आप लाख भागें । आप सभी तरह की ऊटपटांग बातें कर लें । पर तथ्य यह है कि - हमीं लोगों में से कई महत्वाकांक्षी है । कई काम वासना में धंसे हुए हैं । तथ्य यह है कि - हमीं में से कई क्रोधी हैं । और इसी तरह के दर्जनों तथ्य । आप इन सबका दमन कर सकते हैं । आप इनकी दिशा बदल इनको चुप करा देते हैं । जो दमन का ही एक अन्य प्रकार है । आप इन पर नियंत्रण भी पा लेते हैं । लेकिन ये सब दमन । नियंत्रित करना । अनुशासन में आ जाना । संकल्पनाओं द्वारा होता है । क्या सिद्धांत संकल्पनाएं । मत । वाद हमारी ऊर्जा को नष्ट नहीं करते ? क्या विचार हमारे मन मस्तिष्क को कुंद नहीं बनाते । आप अनुमान लगाने । दूसरों को उद्धत करने में कुशल हो सकते हैं ? लेकिन एक जड़ मन ही दूसरों को उद्धत करता है ।
यदि आप विपरीत का द्वंद्व एकबारगी ही खत्म कर दें । और तथ्य के साथ जीने लगें । तो आप अपने अन्दर उस ऊर्जा को मुक्त कर देंगे । जो तथ्य का बखूबी सामना कर लेती है । हममें में से बहुत से लोगों के लिए विरोधाभासों का ऐसी विशेष परिधि होती है । जो हमारे मन मस्तिष्क को जकड़े रखती है । हम करना कुछ चाहते हैं । और कर कुछ और ही रहे होते हैं । लेकिन यदि हम उस तथ्य का सामना करें । जो हम करना चाहते हैं । तो विरोधाभास नहीं रहेगा । इसलिए यदि मैं एक बार में ही विरोधाभास के संपूर्ण भाव को खत्म कर दूं । तो मैं मन पूरी तरह उस तथ्य की समझ से वास्ता रखेगा - जो मैं हूं । जो तथ्य है ।
आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । और दूसरा कोई नहीं करता । तो आपका ईश्वर में विश्वास करना । और किसी अन्य का ईश्वर में विश्वास नहीं करना । आप लोगों को एक दूसरे से बांटता है । सारी दुनियां में विश्वास ही हिन्दुत्व । बौद्ध । ईसाईयत । मुस्लिम । और अन्य धर्म सम्प्रदायों में संगठित हुवा हुआ है । और आदमी को आदमी से अलग कर रहा है । बांट रहा है । हम भृम में हैं । और हम सोचते हैं कि - विश्वास के द्वारा हम अपने भृम को दूर कर लेंगे ।

लेकिन हमारा विश्वास ही भृम पर एक और परत बनकर चढ़ जाता है । लेकिन विश्वास भृम के तथ्य से पलायन मात्र है । यह हमें भृम के तथ्य का सामना करके । उसे समझने में मदद नहीं करता । बल्कि हमें उसी भृम में ले आता है । जिसमें हम अभी हैं । भृम को समझने के लिए विश्वास जरूरी नहीं है । और विश्वास हमारे और हमारी समस्या के बीच एक झीनी चादर का काम करता है । तो धर्म जो कि संगठित विश्वास है । जो हम हैं । हमारे भृम के तथ्य से पलायन मात्र बन जाता है । वह आदमी जो भगवान पर विश्वास करता है । या जो भविष्य में भगवान पर विश्वास करने वाला है । या वो जो अन्य किसी तरह का किसी पर विश्वास रखता है । यह सब - जो वो है । उस तथ्य से पलायन करना मात्र है । क्या आप उन लोगों को नहीं जानते । जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं । पूजा करते हैं । विशेष तरह के मंत्रों और शब्दों का जप करते हैं । और अपनी रोजाना की आम जिन्दगी में दूसरों पर प्रभुत्व जमाते हैं । अत्याचारी हैं । महत्वाकांक्षी हैं । धोखेबाज हैं । बेईमान हैं । क्या ऐसे लोग भगवान को पा सकेंगे ? क्या ऐसे लोग वाकई में भगवान को तलाश रहे हैं ? क्या भगवान शब्दों के दोहराव । जप और विश्वास से मिल जायेगा ? लेकिन कुछ लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं । वो भगवान की पूजा करते हैं । वो रोज मन्दिर जाते हैं । और वो वो सब करते हैं । जो - जो वो हैं । उन्हें इस तथ्य से दूर ले जाता है । ऐसे कुछ लोग आप सोचते हैं । सम्माननीय हैं । क्योंकि खुद आप भी तो यही हैं ना ।
कोई हमारी खुशामद करता है । हमें अपमानित या दुखी करता है । या हमें चोट पहुंचाता है । या प्यार जताता है । तो इन सब बातों को हम संग्रह क्यों कर लेते हैं ? इन अनुभवों को ढेर और इनकी प्रतिक्रियाओं के अलावा हम क्या हैं ? हम कुछ भी नहीं हैं । अगर हमारा कोई नाम ना हो । किसी से जुड़ाव ना हो । कोई विश्वास या मत ना हो । यह ना कुछ होने का भय ही हमें बाध्य करता है कि - हम इन सब तरह के अनुभवों को इकट्ठा करें । संग्रह करें । और यह भय ही चाहे वो जाने में हो या अनजाने में । यह भय ही है । जो हमारी एकत्र करने ।  संग्रह करने की गतिविधियों के बाद हमें अन्दर ही अन्दर तोड़ने । विघटन और हमारे विनाश के कगार पर ले आता है ।
यदि हम इस भय के सच के बारे में जान सकें । तो यह सत्य ही हमें इस भय से मुक्त करता है । ना कि किसी भय से मुक्त होने के उद्देश्य से लिया गया कोई संकल्प । क्योंकि वाकई हम कुछ भी नहीं हैं । हमारा नाम और पद हो सकता है । हमारी संपत्ति और बैंक में खाता हो सकता है । हो सकता है । आपके पास ताकत हो । और आप प्रसिद्ध भी हों । लेकिन इन सब सुरक्षा उपायों के बावजूद हम कुछ नहीं हैं । आप इस ना कुछ होने । खालीपन से अनजान हो सकते हैं । या आप सहज ही नहीं चाहते कि - आप इस ना कुछ पने को जाने । लेकिन ये हमेशा यहीं आपके

पास ही अन्दर ही होता है । आप होते ही नहीं । यही होता है । आप इससे बचने के लिए चाहे जो कर लें । आप इससे पलायन के लिए चाहे कितने ही कुटिल उपाय कर लें । कितनी ही वैयक्तिक या सामूहिक हिंसा कर लें । वैयक्तिक या सामूहिक पूजा पाठ सत्संग कर लें । ज्ञान या मनोरंजन के द्वारा इससे बचें । लेकिन जब भी आप सोयें । या जागें । हमारा ना कुछ पना हमेशा यहीं होता है । आप इस ना कुछ होने और इसके भय से केवल तभी संबंध बना सकते हैं । जब आप अपने इससे बचाव या पलायन के प्रति बिना पसंद या ना पसंद के जागरूक रह सकें ।
आप इससे किसी अलग या वैयक्तिक शै की तरह नहीं जुड़े हैं । आप वो अवलोकन कर्ता नहीं हैं । जो इसे एक दूरी से इसे देख रहे हैं । लेकिन आपके बिना । जो कि सोच रहा है । अवलोकन कर रहा है । यह नहीं है । आप और यह ना कुछ पना एक ही है । आप और यह ना कुछ होना । एक संयुक्त घटना है । दो अलग अलग प्रकृम नहीं हैं । यदि आप जो कि सोचने वाले हैं । इससे डरे हुए हैं । और इससे ऐसे व्यवहार करते हैं । जैसे यह आपसे कुछ अलग या विपरीत है । तो आपके द्वारा इसके प्रति उठाया गया कोई भी कदम निश्चित ही । अनिवार्यतः आपको भृम और उससे उपजे द्वंद्व और विपदाओं संतापों में ले जायेगा ।
जब यह पता चल जाता है कि - इस ना कुछ पने को को अनुभव करने वाले आप ही हैं । तब वह भय जो कि तभी रहता है । जब कि विचार करने वाला अपने विचार से अलग रहता है । और इसलिए इससे कोई सम्बंध स्थापित करना चाहता है । यह भय पूरी तरह खो जाता है ।  केवल तभी मन के लिए थिर या अचल हो पाना । संभव होता है । और इस शांति  निर्वेद पन में ही परम सत्य होता है ।
जे कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं का निचोड़ उनके सन 1929 में दिये गये वक्तव्य में है । जिसमें उन्होंने कहा -
सच एक पथ रहित भूमि है । यानि सच ऐसा गंतव्य है । जहां तक कि सुनिश्चित बंधे बंधाये मार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता । इंसान को यदि सच तक पहुंचना है । तो वो ऐसा किसी संगठन । किसी पंथ । किसी परंपरा । या रूढ़ि । संत । महात्मा । पंडे । पुजारी । या रीति रिवाज के अनुसरण से नहीं पहुंच सकता । ना ही किसी दार्शनिक ज्ञान । या मनोवैज्ञानिक तकनीक से ही सच तक पहुंच संभव है । यदि किसी को सच का पता लगाना है । तो उसे खुद को संबंधों के दर्पण में देखना होगा । अपने मन के तत्वों को समझना होगा । अवलोकन करना होगा । ना कि बौद्धिक विश्लेषण । या आत्म विश्लेषण । खयाली चीर फाड़ से यह संभव हो सकेगा । इंसान ने अपनी सुरक्षा की बाड़ के रूप में । अपनी ही धार्मिक । राजनीतिक । वैयक्तिक आदि कई छवियां बना रखी हैं । इंसान के व्यवहार में ये प्रतीकों विचारों और विश्वासों के रूप में प्रकट होती हैं । इन गढ़ी हुई छवियों का बोझ । इंसान की सोच । उसके रिश्ते । और उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी पर हावी रहता है । एक दूसरे के बारे में गढ़ी हुई ये छवियां ही इंसानी समस्याओं का कारण हैं । क्योंकि ये एक आदमी को दूसरे से अलग करती हैं । दो व्यक्तियों में अलगाव बनाती हैं । इंसान के मन में पहले से ही स्थापित धारणाओं के आधार पर जीवन के प्रति उसका नजरिया आकार लेता है । जो आदमी की

चेतना में है । वही उसका पूरा अस्तित्व होता है । किसी व्यक्ति का नाम । पंरपरा और परिवेश से ग्रहण बातें ही उसकी सतही सांस्कृतिक और निजता की पहचान बनते हैं । लेकिन आदमी का अनूठा पन उसकी बाहरी छदम पहचान में नहीं । अपितु अपनी चेतना की सभी तत्वों से पूरी तरह मुक्त हो रहने में निहित है । जो सारी मानवता के लिए एक समान रूप से लागू होता है । इसलिए किसी भी व्यक्ति का सारी मानवता से अलग । किसी प्रकार का अस्तित्व नहीं है ।
मुक्ति कोई प्रतिक्रिया नहीं है । ना ही कोई चुनाव । या पसंद है । यह आदमी का ही दिखावा है कि - क्योंकि वह चुन रहा है । इसलिए वह मुक्त है । मुक्ति विशुद्ध अवलोकन है । बिना किसी दिशा या कारण के । बिना किसी सजा या दंड के । भय या इनाम के । मुक्ति का कोई निहितार्थ या उद्देश्य भी नहीं होता । ऐसा नहीं है कि - जब किसी मनुष्य का पूरा विकास हो जाता है । तो मनुष्यत्व का चरम आ जाता है । तब वो मुक्त हो जाता है । पर उसके अस्तित्व के पहले कदम पर ही मुक्ति भी निहित है । मुक्ति भी होती ही है । अवलोकन में से ही कोई देखना शुरू करता है कि - कहां कहां मुक्ति का अभाव है । कमी है । कहां मुक्ति नहीं है ? वो बंध रहा है । मुक्ति हमारे दैनिक जीवन । उसकी गतिविधियों को बिना पसंद नापसंद के । या चयन रहित होकर देखने । या अवधान । ध्यान में रहने में पाई जाती है ।
विचार समय है । विचार अनुभव और ज्ञान से जन्मता है । अनुभव और ज्ञान समय और अतीत से अलग नहीं किये जा सकते । समय इंसान का मनौवैज्ञानिक दुश्मन है । हमारे कर्म ज्ञान पर आधारित होते हैं । यानि समय पर आधारित होते हैं । इसलिए इंसान हमेशा ही अतीत का दास या गुलाम होता है । विचार हमेशा सीमित होता है । उसकी सीमाएं होती हैं । इसलिए हम अनवरत नित्य ही द्वंद्व और संघर्ष में जीते हैं । मनोवैज्ञानिक विकास नाम की कोई चीज नहीं होती । जब आदमी अपने ही विचारों की गतिविधियों के प्रति जाग जाता है । अवधान ध्यान पूर्ण हो जाता है । तो वह देख पाता है कि - विचारक और विचार के बीच में क्या कोई अंतर है भी । वह देख पाता है कि - अवलोकन कर्ता और अवलोकन । अनुभव कर्ता और अनुभव के बीच क्या कोई अंतर है भी । वह जान जाता है कि - इनके बीच अंतर । एक भृम है । तब वहां केवल विशुद्ध अवलोकन रह जाता है । जो कि वो अंतर दृष्टि है । जो अतीत की किसी भी तरह की छाया से रहित होती है । यह समयातीत अंतर दृष्टि मन में गहरा । अत्यंतिक मूल बदलाव लाती है ।
पूरी तरह नकार । पूर्ण निषेध ही । सकार का निचोड़ है । जब उन सभी चीजों का निषेध या नकार हो जाता है । जिन्हें कि विचार द्वारा मनौवैज्ञानिक रूप से पैदा किया जाता है । -तब जो शेष रहता है - वह ही प्रेम है । जो परम संवेदना या करूणा भी है । जो परम प्रज्ञा या समझ भी है । जे. कृष्णमूर्ति

केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं

क्या आप जानते हैं । धर्म क्या है ? जप तप पूजा या ऐसे अन्य रीति रिवाज धर्म नहीं । धातु पत्थर की मूर्ति  पूजा में भी नहीं । न मंदिर । न मस्जिद । न चर्च । न गुरुद्वारा में है । बाइबिल । गीता । कुरआन । ग्रन्थ साहब । पढ़ने या दिव्य पवित्र कहे जाने वाले नामों को तकिया कलाम बना लेने में भी नहीं है । यह आदमी के अन्य अंधविश्वासों में भी नहीं है । ये सब धर्म नहीं ।
धर्म अच्छाई । भलाई । शुभता का अहसास है । प्रेम है । जो जीती जागती भागती दौड़ती नदी की तरह अनन्त सा बह रहा है । इस अवस्था में आप पाते हैं कि - एक क्षण ऐसा है । जब कोई किसी तरह की खोज बाकी नहीं रही । और खोज का अन्त ही किसी पूर्णतः समग्रतः भिन्न का आरंभ है । ईश्वर सत्यकीखोज पूरी तरह अच्छा बनना । दयालु बनने की कोशिश । धर्म नहीं । मन की ढंपी छुपी कूट चालाकियों से परे । किसी संभावना का अहसास । उस अहसास में जीना । वही हो जाना । यह असली धर्म है । पर यही तभी संभव है । जब आप उस गड्ढे को पूर दें । जिसमें आपका - अपनापन । अहंकार । आपका कुछ भी होना । रहता है । इस गड्ढे से बाहर निकल जिंदगी की नदी में उतर जाना धर्म है । जहां जीवन का आपको संभाल लेने का अपना ही विस्मयकारी अंदाज है । क्योंकि आपकी ओर से । आपके मन की ओर से । कोई सुरक्षा या संभाल नहीं रही । जीवन जहां चाहे । आपको ले चलता है । क्योंकि आप उसका खुद का हिस्सा हैं । तब ही

सुरक्षा की समस्या का अंत हो जाता है । इस बात का भी कि लोग क्या कहेंगे ? क्या नहीं कहेंगे ? और यह जीवन की खूबसूरती है ।
एक आदमी जो ईश्वर में विश्वास करता है । ईश्वर को नहीं खोज सकता । ईश्वर एक अज्ञात अस्तित्व है । और इतना अज्ञात कि हम ये भी नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व है । यदि आप वाकई किसी चीज को जानते हैं । वास्तविकता के प्रति खुलापन रखते हैं । तो उस पर विश्वास नहीं करते । जानना ही काफी है । यदि आप अज्ञात के प्रति खुले हैं । तो उसमें विश्वास जैसा कुछ होना अनावश्यक है । विश्वास । आत्म प्रक्षेपण का एक ही एक रूप होता है । और केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं । आप अपने हीरो लड़ाकू विमान उड़ाने वालों का विश्वास देखिये । जब वो बम गिरा रहे होते हैं । तो कहते हैं कि - ईश्वर उनके साथ है । तो आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । जब लोगों पर बम गिरा रहे होते हैं । लोगों का शोषण कर रहे होते हैं । आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । और जी तोड़ कोशिश करते हैं कि - कहीं से भी किसी भी तरह से अनाप शनाप पैसा आ जाये । आपने भृष्टाचार । लूट खसोट से कोहराम मचा रखा है । आप अपने देश की सेना पर अरबों खरबों रूपये खर्च करते हैं । और फिर आप कहते हैं कि - आप में दया । सदभाव है । दयालुता है । आप अहिंसा के पुजारी हैं । तो जब तक विश्वास है । अज्ञात के लिए कोई स्थान नहीं । वैसे भी आप अज्ञात के बारे में सोच नहीं सकते । क्योंकि अज्ञात तक विचारों की पहुंच नहीं होती । आपका मन अतीत से जन्मा है । वो कल का परिणाम है । क्या ऐसा बासा मन अज्ञात के प्रति खुला हो सकता है । आपका मन । बासे पन का ही पर्याय है । बासा पन ही है । यह केवल एक छवि प्रक्षेपित कर सकता है । लेकिन प्रक्षेपण कभी भी यथार्थ वास्तविकता नहीं होता । इसलिये विश्वास करने वालों का ईश्वर वास्तविक ईश्वर नहीं है । बल्कि ये उनके अपने मन का प्रक्षेपण है । उनके मन द्वारा स्वान्तः सुखाय गढ़ी गई एक छवि है । रचना है । यहां वास्तविकता 


यथार्थ को जानना समझना तभी हो सकता है । जब मन खुद की गतिविधियों प्रक्रियाओं के बारे में समझ कर । एक अंत समाप्ति पर आ पहुंचे । जब मन पूर्णतः खाली हो जाता है । तभी वह अज्ञात को ग्रहण करने योग्य हो पाता है । मन तब तक खाली नहीं हो सकता । जब तक वो संबंधों की सामग्री सबंधों के संजाल को नहीं समझता । जब तक वह धन संपत्ति और लोगों से संबंधों की खुद की प्रकृति नहीं समझ लेता । और सारे संसार से यथार्थ वास्तविक संबंध नहीं स्थापित कर लेता । जब तक वो संबंधों की संपूर्ण प्रक्रिया । संबंधों में द्वंद्वात्मकता । रिश्तों के पचड़े नहीं समझ लेता । मन मुक्त नहीं हो सकता । केवल तब जब मन पूर्णतः निस्तब्ध शांत पूर्णतया निष्क्रिय निर उधम होता है । प्रक्षेपण करना छोड़ देता है । जब वह कुछ भी खोज नहीं रहा होता । और बिल्कुल अचल ठहरा होता है । तभी वह पूर्ण आंतरिक और कालातीत अस्तित्व में आता है ।
एक निश्छल निस्वार्थ दिल का होना । ध्यान का आरंभ है । जब हम उसके बारे में बात करना चाहते हैं । तो मन मस्तिष्क के अंतस्तल की कोशिशों की आवश्यकता होगी । हमें पहला कदम उसके सबसे निकट के बिंदु से उठाना होगा । ध्यान का फल है - शुभता । और निश्छल ह्रदय - ध्यान का आरंभ है । हम जीवन की बहुत सी चीजों के बारे में बात करते हैं । प्रभुता । महत्वाकांक्षा । भय । लोभ । ईर्ष्या । मृत्यु के संबंध में बहुत सी बातें करते हैं । अगर आप देखें तो । अगर आप इनके भीतर तक जाएं तो । यदि आप ध्यान पूर्वक सुने तो । ये सारी बातें एक ऐसे मन को खड़ा करने का आधार हैं । जो ध्यान में सक्षम हो । आप ध्यान के शब्द से खेल सकते हैं  । ध्यान नहीं कर सकते । यदि आप महत्वाकांक्षी हों । यदि आपका मन प्रभुत्व का आकांक्षी है । संस्कारों में बंधा है । स्वीकार और अनुसरण में लगा है । तो आप ध्यान की खूबसूरती का अतिरेक नहीं देख सकते ।
समयबद्ध रूप से इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिशें । मन की निश्छलता को । निस्वार्थ भाव को । खत्म करती हैं । और आपको चाहिए । एक निश्छल मन । एक खुला ह्रदय । जो आकाश की तरह खाली हो । एक दिल जो बिना

विचारे । निरूद्देश्य देना चाहता हो । बिना किसी प्रतिफल की आशा के । क्षुद्रतम से लेकर । जितना भी उसके पास हो । उसे देने की त्वरितता । बिना किसी असमंजस । भले बुरे की परवाह बगैर । मान रहित । किसी ऊंचाईयों की तलाश की कोशिश बगैर । बिना प्रसिद्धि की लालसा में । ऐसे उर्वर मन की भूमि पर ही शुभता फूलती फलती है । और ध्यान शुभता के पुष्प का खिलना ही है ।
क्या सत्य कुछ निर्णायक चरम और स्थिर सी जड़ चीज है ? या हम चाहते हैं कि - सत्य कुछ निर्णायक सी चरम और स्थिर जड़ सी चीज हो । ताकि हमें उसके नीचे आसरा मिल सके । हम चाहते हैं कि वो चिर स्थायी हो । ताकि हम उसे पकड़ सकें । उसमें खुशियां ढूंढ सकें । पर क्या सत्य पूरी तरह निरंतर कितनी बार भी अनुभव किये जाने पर भी वैसा का वैसा रहने वाली चीज है ? अनुभवों का दोहराव । स्मृतियों का संचयन है । ऐसा नहीं है क्या ? मौन के क्षणों में । मैं एक सत्य अनुभव करता हूं । पर यदि मैं इसे स्मृति और अनुभव के रूप में पूर्ण और निरपेक्ष स्थिर कर दूं । तो क्या वह सत्य रहेगा ? क्या सत्य सततता है । स्मृति की उपज है ? या सत्य केवल तब मिलता है । जब मन नितांत स्थिर होता है ? जब मन स्मृतियों की जकड़ से परे होता है । स्मृतियों की उपज के रूप में पहचान का कोई केन्द्र नहीं होता । पर सब कुछ के प्रति एक होश या चेतना भर होती है । जो मैं कह रहा हूं । जो कुछ भी अपने संबंधों में मैं कर रहा हूं । मेरी गतिविधियों में । सब कुछ के सत्य को प्रतिक्षण देखते हुए । जैसा वो है  । निश्चित ही यही ध्यान का ढंग है । क्या नहीं ? जब मन ठहरा हुआ हो । तब एक बोध मात्र होता है । यह बोध मात्र मन का ठहराव । तब तक नहीं होता । जब तक खुद से बेपरवाही । एक उनमना पन नहीं होता । और यह उनमना पन किसी भी प्रकार के अनुशासन । किसी भी संप्रभुता के अनुशीलन । वो प्राचीन हो । या आधुनिक से उपलब्ध नहीं होता । विश्वास प्रतिरोध अलगाव पैदा करता है । और जहां अलगाव हो । वहां प्रशांत धीरता की संभावना नहीं रहती । यह धीरता स्वयं को पूर्ण रूप से समझने । अपने " मैं " जो कि कई द्वंद्वों के अस्तित्व से मिलकर खड़ा हुआ है । को समझने के बाद ही आती है । यह एक कठिन कार्य है । तो हम कई अन्य जुगाड़ों करामातों की ओर मुड़ जाते हैं । जिन्हें हम ध्यान का नाम देते हैं । मन की यह चालाकियां ध्यान नहीं हैं । ध्यान आत्म ज्ञान का आरंभ है । और ध्यान के बिना कोई आत्म ज्ञान नहीं । जे. कृष्णमूर्ति
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ध्यान जीवन की महानतम कला है । और इसका सौन्दर्य इसमें भी है कि - इसे किसी अन्य से सीखना संभव नहीं । इसकी कोई तकनीक नहीं । और इसलिए इस पर कोई आधिपत्य भी नहीं । जे कृष्णामूर्ति
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आपका भगवान ? आप लोगों को बाँट देता है

आप जानते हैं - एकाग्रता एक प्रयास है । किसी विशेष पृष्ठ । एक विचार धारा । छवि । चिह्न आदि पर ध्यान केन्द्रित करना आदि । एकाग्रता अपवर्जना की एक प्रक्रिया है । एकाग्रता किसी चीज को वर्जित कर अन्य पर ध्यान केन्द्रित करना है । आप किसी छात्र से कहते हैं - खिड़की के बाहर मत देखो । अपनी किताब पर ध्यान दो । तो वो बाहर देखना चाहता है । पर किताब पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए स्वयं को बाध्य करता है । तो यहाँ एक द्वंद्व है । एकाग्रता का यह अविरत प्रयास । एक अपवर्जन ( किसी चीज को वर्जित कर किसी अन्य में प्रवृत्त होना ) प्रक्रिया है । जिसका जागरूकता से कोई लेना देना नहीं है । जब कोई प्रेक्षक होता है । देखता है । यह आप भी कर सकते हैं । कोई भी कर सकता है । जब केवल चुनाव रहित प्रेक्षण होता है । तो ही जागरूकता होती है । चुनाव सहित देखना । पूर्वाग्रह सहित देखना । भृमित रहना । और अ जागरूकता है ।
आप खुद पर ही यह प्रयोग कर के देखें । यह बहुत ही सामान्य और आसान है । अगली बार जब भी आप क्रोधित हों । ईर्ष्या । लोभ । हिंसा । या जो कुछ भी भाव हो.से भर जाएं । स्वयं को देखें । उस दशा में - आप स्वयं नहीं होते । वह केवल निपट अस्तित्व की दशा होती है । उसके कुछ क्षणों बाद । कुछ सेकण्डस बाद । आप अस्तित्व में आते हैं । आप उस दशा.. को नाम एक देते हैं । या क्रोध । ईर्ष्या । लोभ आदि कहते हैं । तो आप देखिये । आप तुरंत एक दृष्टा । और एक दृश्य । एक अनुभव । और एक अनुभोक्ता की रचना कर लेते हैं । जब अनुभोक्ता और अनुभव होता है । तो अनुभोक्ता ( अनुभव करने वाला ) अनुभव में बदलाव की कोशिश करता है । तो इन सब बातों को याद रखें । इस प्रकार हम खुद अपने और अनुभव में अलगाव बनाये रखते हैं । यदि आप भावों का नामकरण नहीं करते हैं । जिसका मतलब है कि जब आप परिणाम की खोज में नहीं हैं । जब आप आलोचना नहीं कर रहे हैं । जब आप केवल चुपचाप अहसास को देख भर रहे हैं । तब आप पायेंगे । इस अहसास की दशा में । इस अनुभव की दशा में । अनुभोक्ता और अनुभव कुछ नहीं होता । क्योंकि अनुभव और अनुभव करने वाला एक ही हैं । केवल अनुभविता ही है ।
अंर्तवलोकन । खुद को देखना । आत्मोन्नति ( खुद को सुधारने की कोशिश ) का एक प्रकार है । यह आत्म प्रसार कभी भी सत्य तक नहीं पहुँचाता । क्योंकि यह स्वयं को आबद्ध करने वाली एक प्रक्रिया है । जबकि जागरूकता वह दशा है । जहाँ सत्य अस्तित्व में आता है । जो है । वह सत्य रूप में । रोजमर्रा के जीवन के सामान्य सच । जब हम रोजमर्रा के सामान्य सत्यों को समझने लगते हैं । तभी हम उनके पार जा सकते हैं । आपको कहीं जाना है । तो आप - जहाँ हैं । वहीं से शुरूआत करनी होगी । लेकिन हममें से बहुत से लोग छलांग लगाना चाहते हैं । जो पास है । निकट ही है । उसको बिना जाने समझे । हम दूर की बातें जानना समझना चाहते हैं । जब हम जो पास ही है । निपट निकट ही है । उसे समझ लेते हैं । तब हमें पता चलता है कि - पास और दूर कोई अंतराल है ही नहीं । उनमें कोई अंतराल । या दूरी है ही नहीं । शुरूआत और अंत एक ही हैं ।
क्या कोशिश का मतलब बदलाव लाने के लिए किया गया वह संघर्ष नहीं है । जो - जो है  उसे । जो नहीं है । या जो होना चाहिये । या जो होगा । उसमें बदलने के लिये । हम - जो हैं । उसमें परिवर्तन अथवा बदलाव के लिए निरंतर

पलायन करते भागते रहते हैं । जब हम उस वास्तविकता से - जो है । अ जागरूक होते हैं । केवल उसी समय बदलाव की कोशिश पैदा होती है । तो कोशिश अ जागरूकता है । जो है । उसके अभिप्राय । उसके महत्व को । जानना समझना जागरूकता है । और इस अभिप्राय महत्व को पूर्णरूपेण स्वीकारना स्वतंत्रता लाता है । तो जागरूकता निष्प्रयास है । जागरूकता - जो है । उसे वैसा का वैसा बिना किसी विक्षेपण के देखना है । जहाँ भी कोशिश की जाती है । प्रयास किया जाता है । वहाँ विक्षेपण होता है ।
सजगता द्वारा मैं खुद को देखना शुरू करता हूँ । जैसा कि वास्तविकता में - मैं हूँ । अपने स्वयं का पूर्णत्व । प्रत्येक क्षण की गति को देखते हुए । उसके सभी विचारों । उसके अहसासों । उसकी प्रतिक्रियाओं । अचेतन । और चेतन भी । मन निरंतर अपनी गतिविधियों का अर्थ महत्व खोजता रहता हैं । यदि मेरी समझ मात्र कुछ चीजों का जोड़ है । तो यह जोड़ एक शर्त बन जाता है । जो मेरी आगे की समझ को रोकता है । तो क्या मस्तिष्क स्वयं को बिना कुछ जोड़े घटाये । जैसा है । वैसा का वैसा ही । देख सकता है ?
एक स्पष्टता । जो किसी कारण विशेष से नहीं होती । जब मन और शरीर की प्रत्येक क्रिया के बारे में अंर्तमुखी सजगता रहती है । जब आप अपने विचारों । खुले और दबे ढंके हुए सभी अहसासों । चेतन और अवचेतन के प्रति सजगता रखते हैं । तब इस सजगता से एक स्पष्टता आती है । जो बिना किसी कारण विशेष के होती है । जिसे बुद्धि के साथ एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । इस स्पष्टता के बिना आप जो करें । आप स्वर्ग । सारी धरती । और कई अतल गहराईया छान लें । लेकिन आप बिलकुल ही नहीं जान सकते कि - सच क्या है ?
कृपया इसे ध्यान पूर्वक सुनें । हममें से बहुत से लोग सोचते हैं कि - सजगता । ध्यान कुछ रहस्यमय चीज है । जिसका अभ्यास करना चाहिए । और जिसके लिए बार बार हम इकट्ठे होते । और बातें करते हैं । लेकिन इस तरीके से कभी होश वान नहीं हुआ जाता । लेकिन यदि आप बाहरी चीजों के प्रति होशवान हैं । दूर तक चली गई सड़क के सर्पीले । घुमावदार । लहराव । वृक्ष का आकार । किसी के पहनावे का रंग । नीले आसमान की पृष्ठ भूमि में किसी पर्वत का रेखा चित्र । किसी फूल का सौन्दर्य । किसी पास से गुजरते व्यक्ति के चेहरे पर दुख दर्द के चिह्न । किसी का हमारी परवाह न करना । दूसरों की ईर्ष्या । पृथ्वी की सुंदरता । तब इन सब बाहरी चीजों को । बिना किसी आलोचना के । बिना पसंद ना पसंद किये देखना । इससे आप आंतरिक अंर्तमुखी सजगता की लहर पर भी सवार हो जाते हैं । तब आप अपनी ही प्रतिक्रियाओं । अपनी ही क्षुद्रता । अपने ईर्ष्यालु पन के प्रति भी होशवान हो सकते हैं । बाहरी सजगता से आप आंतरिक सजगता की ओर आते हैं । लेकिन यदि आप बाह्य बाहरी के प्रति सजग नहीं होते हैं । तो आपका आंतरिक अंर्तमुखी सजगता पर आना असंभव प्राय है ।
हम अपने से संबंधित चीजों के बारे में देखने और सोचने में कितना कम ध्यान देते हैं । हम अति आत्म केन्द्रित हैं । अपनी ही चिंताओं से भरे हुए । अपने ही लाभ के लिए । हमारे पास देखने और समझने का समय नहीं है । यह भरा पन । हमारे मन को कुंद और हमें दिल दिमाग से थका हुआ । हीनता गृस्त । और शोक पूर्ण बनाता है । और शोक से हम पलायन करना चाहते हैं । जब तक हमारा स्व सक्रिय है । थकान । कुंदपना । और हीन गृस्तता होगी ही । लोग एक पागलपन की दौड़ में फंसे हुये हैं । अपनी ही आत्म केन्द्रित दुख के शोक में । यह शोक एक गहरी विचार हीनता है । विचार वान । और देखने वाला । सभी दुखों से मुक्त होता है ।
वास्तव में क्या सच है । और क्या झूठ ? इसके लिए प्रत्यक्ष । अप्रत्यक्ष । प्रभावों की । सभी समस्याओं को समझने के लिए । हमें आंतरिक और बाह्य उद्देश्यों के प्रभावों । अनुभवों के प्रभाव । ज्ञान के प्रभाव को समझना होगा । हमें अत्यांतिक अंर्तदृष्टि । एक गहरी सूझ बूझ चाहिए । जो है । उसे वैसा ही ( बिना किसी बात से प्रभावित हुए ) देखने के लिए । और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही ध्यान कहते हैं । ध्यान उसी तरह अनिवार्य है । जैसे हमारा जीवन । दिनचर्या । और जीवन में खूबसूरती । खूबसूरती को खूबसूरती । और कुरूप को कुरूप की । देख सकने वाली चेतना चाहिए । वरना आप खूबसूरत वृक्षों । शाम के सिन्दूरी आसमान । और अनन्त विस्तार तक फैले 


क्षितिज में । बादलों के झुरमुट में । बैठे सूरज की खूबसूरती कैसे जान पाएंगे । सारी खूबसूरती । और कुरूपता को - जैसी वो है ? वैसा ही देखने के लिए । ध्यान की आँख चाहिए । हमारी सारी दिनचर्या में ध्यान चाहिए । सुबह जब हम दफ्तर या काम पर निकलते हैं । लड़ाई झगड़े करते हैं । तनाव । क्रोध । क्षोभ । और गहरे डर को । प्रेम को । वासना को । इन सब बातों को समझने के लिए । ध्यान अनिवार्य । मूलभूत आवश्यकता है । हमारे अस्तित्व की संपूर्ण प्रक्रिया को । कौन सी बातें हमें प्रभावित करती हैं ? किन बातों से हम तनाव में घिर जाते हैं ? किन बातों को सुन समझ महसूस कर हम फूल कर कुप्पा हो जाते हैं ? किनसे दुख ? किनसे सुख मिलता सा लगता है ? इन सब बातों को जानने समझने का माध्यम है - ध्यान । यह सम्पूर्ण देखना । जानना । बूझना । समझना । हमें समस्याओं से । असत्य से । मुक्त करता है । और यथार्थ में प्रवृत्त - यही ध्यान है ।
एक निश्छल । निस्वार्थ दिल का होना । ध्यान का आरंभ है । जब हम उसके बारे में बात करना चाहते हैं । तो मन मस्तिष्क के अंतस्तल की कोशिशों की आवश्यकता होगी । हमें पहला कदम । उसके सबसे निकट के बिंदु से । उठाना होगा । ध्यान का फल है - शुभता । और निश्छल ह्रदय ध्यान का आरंभ है । हम जीवन की बहुत सी चीजों के बारे में बात करते हैं । प्रभुता । महत्वाकांक्षा । भय । लोभ । ईर्ष्या । मृत्यु के संबंध में बहुत सी बातें करते हैं । अगर आप देखें तो । अगर आप इनके भीतर तक जाएं तो । यदि आप ध्यान पूर्वक सुने तो । ये सारी बातें । एक ऐसे मन को खड़ा करने का आधार हैं । जो ध्यान में सक्षम हो । आप ध्यान के शब्द से खेल सकते हैं । ध्यान नहीं कर सकते । यदि आप महत्वाकांक्षी हों । यदि आपका मन प्रभुत्व का आकांक्षी है । संस्कारों में बंधा है । स्वीकार । और अनुसरण में लगा है । तो आप ध्यान की खूबसूरती का अतिरेक नहीं देख सकते ।
समय बद्ध रूप से इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिशें । मन की निश्छलता को । निस्वार्थ भाव को । खत्म करती हैं । और आपको चाहिए । एक निश्छल मन । एक खुला ह्रदय । जो आकाश की तरह खाली हो । एक दिल । जो बिना विचारे । निरूद्देश्य देना चाहता हो । बिना किसी प्रतिफल की आशा के । क्षुद्रतम से लेकर । जितना भी उसके पास हो । उसे देने की त्वरितता । बिना किसी असमंजस । भले बुरे की परवाह बगैर । मान रहित । किसी ऊंचाईयों की तलाश की कोशिश बगैर । बिना प्रसिद्धि की लालसा में । ऐसे उर्वर मन की भूमि पर ही । शुभता फूलती फलती है । और ध्यान शुभता के पुष्प का खिलना ही है ।
अज्ञात । ज्ञात द्वारा अ मापनीय है । समय । समयातीत को नहीं माप सकता । उस सनातन । अपरिमित को । जिसका आदि और अंत नहीं है । पर हमारा मन कल । आज । और कल की मापन इकाई ( गज ) से बंधा हुआ है । और इस गज से । हम अज्ञात को जानने में लगे हैं । उस चीज को मापने की कोशिश कर रहे हैं । जो अपरिमित है । अ मापनीय है । और जब हम किसी अपरिमित को मापने को कोशिश करते हैं । तो सिवा शब्दों के हमारे हाथ कुछ नहीं आता । Infinite अनन्‍त
एक धार्मिक व्यक्ति ? वो व्यक्ति नहीं । जो भगवान को ढूंढ रहा है । धार्मिक आदमी समाज के रूपांतरण से संबद्ध है

। जो कि वह स्वयं है । धार्मिक आदमी ? वो व्यक्ति नहीं । जो असंख्य रीति रिवाजों । परंपराओं को मानता । करता है । अतीत की संस्कृति । मुर्दा चीजों में जिंदा रहता है । धार्मिक आदमी ? वो व्यक्ति नहीं है । जो निर्बाध रूप से । बिना किसी अंत के । गीता या बाइबिल की व्याख्या में लगा हुआ है । या निर्बाध रूप से जप कर रहा है । सन्यास धारण कर रखा है । ये सारे तो वो व्यक्ति हैं । जो तथ्य से पलायन कर रहे हैं । भाग रहे हैं । धार्मिक आदमी का संबंध । कुल जमा । संपूर्ण रूप से । समाज को । जो कि वह स्वयं ही है । को समझने वाले । व्यक्ति से है । वह समाज से । अलग नहीं है । खुद के पूरी तरह । संपूर्ण रूप से रूपांतरण । अर्थात् लोभ । अभिलाषाओं । ईर्ष्या । महत्वाकांक्षाओं के अवसान द्वारा । आमूल रूपांतरण । और इसलिए । वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं । यद्यपि वह स्वयं । परिस्थितियों का परिणाम है । अर्थात जो भोजन । वह खाता है । जो किताबें । वह पढ़ता है । जो फिल्में । वह देखने जाता है । जिन धार्मिक प्रपंचों । विश्वासों । रिवाजों । और इस तरह के सभी । गोरख धंधों में । वह लगा है । वह जिम्मेदार है । और क्योंकि वह जिम्मेदार है । इसलिये धार्मिक व्यक्ति स्वयं को अनिवार्यतः समझता है कि वो समाज का उत्पाद है । समाज की पैदायश है । जिस समाज को । उसने स्वयं बनाया है । इसलिए अगर यथार्थ को खोजना है । तो उसे यहीं से शुरू करना होगा । किसी मंदिर में नहीं । किसी छवि से बंध कर नहीं । चाहे वो छवि हाथों से गढ़ी हो । या दिमाग से । अन्यथा । कैसे वह कुछ खोज सकता है ? जो सम्पूर्णतः नया है । यथार्थतः - एक नयी अवस्था है ।
क्या हम खुद में धार्मिक मन की खोज कर सकते हैं ? एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में । वास्तव में वैज्ञानिक होता है । वह अपनी राष्ट्रीयता । अपने भय । डर । अपनी उपलब्धियों से गर्वोन्नत । महत्वाकांक्षाओं । और स्थानिक जरूरतों के कारण । वैज्ञानिक नहीं होता । प्रयोगशाला में वह केवल खोज कर रहा होता है । पर प्रयोगशाला के बाहर । वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही होता है । अपनी पूर्व अवधारणाओं । महत्वाकांक्षाओं । राष्ट्रीयता । घमण्ड । ईर्ष्याओं । और इसी तरह की । अन्य बातों सहित । इस तरह के मन की पहुँच - धार्मिक मन तक कभी नहीं होती । धार्मिक मन । किसी प्रभुत्व केन्द्र से संचालित नहीं होता । चाहे उसने पारंपरिक रूप से ज्ञान संचित कर रखा हो । या वह अनुभव हो ( जो कि सच में परंपराओं की निरंतरता । शर्तों की निरंतरता ही है । ) पंरपरा । यानि शर्त । आदत ।
धार्मिक सोच । समय के नियमों के । मुताबिक नहीं होती । त्वरित परिणाम । त्वरित दुरूस्ती । सुधराव । सुधार । समाज के ढर्रों के भीतर । धार्मिक मन । रीति रिवाजी मन नहीं होता । वह किसी चर्च । मंदिर । मस्जिद । गुरुद्वारा । ग्रन्थ । किसी समूह । किसी सोच के ढर्रे का । अनुगमन नहीं करता । धार्मिक मन । वह मन है । जो अज्ञात में ? प्रवेश करता है । और आप । अज्ञात में नहीं जा सकते । छलांग लगा कर भी नहीं । आप पूरी तरह हिसाब लगाकर । बड़ी सावधानी पूर्वक । अज्ञात में । प्रवेश नहीं कर सकते । धार्मिक मन ही । वास्तव में । क्रांतिकारी मन होता है । और क्रांतिकारी मन - जो है । उसकी प्रतिक्रिया नहीं होता । धार्मिक मन । वास्तव में । विस्फोटक ही है । सृजन है । और यहाँ । शब्द - सृजन । उस सृजन की तरह न लें । जिस तरह कविता । सजावट । भवन । या वास्तु शिल्प । संगीत । काव्य । या इस तरह की चीजें । ये सृजन की । एक अवस्था में ही हैं ।
इस दुनियाँ में । क्या हो रहा है ? आपका ईश्वर ईसाई है ? हिन्दू है ? मुसलमान है ? सबकी अपनी अपनी । कल्पना के हिसाब से ? ईश्वर है । और उसमें भी । छोटे से छोटे । अन्तर विशेष से । सत्य का आग्रह करते हुए । कुछ लोगों के हाथों में । ये विशेष सत्य । शोषण का माध्यम । धर्म की दुकान । बन जाता है । आप बारी बारी से । हर दुकान पर जाते हैं । सब जाँचते हैं । क्योंकि आप । भला बुरा देखने की । समझ खोने के कगार पर हैं । क्योंकि आप बीमार हैं । और आप इलाज चाहते हैं । और आप किसी भी दुकान द्वारा पेश किये गये इलाज को स्वीकार करने के लिए खुद को मजबूर पा रहे हैं । वो हिन्दू हो । या मुसलमान । ईसाई । या और कोई । तो होता ये है कि - आपका भगवान ? आप लोगों को बाँट देता है । आपका ईश्वर में विश्वास । आपको इंसानों इंसानो में बाँट दे रहा है । कुछ आदमी हिन्दू । कुछ ईसाई । कुछ सिख । कुछ मुसलमान । इसके बावजूद । आप ईश्वर के नाम पर । भाई चारे की बात करते हैं ? मुसलमान । मुसलमान एक अल्लाह के बंदे हैं । हिन्दुओं । ईसाईयों । पारसियों का क्या ? आप जो खोजने चलें हैं । आप शुरू में ही उससे इंकार कर देते हैं । क्योंकि आप अपने विश्वासों से बंधे हुए हैं । विश्वासों की सूली पर टंगे हुए हैं । क्योंकि आप मानते हैं कि - विश्वास सीमाओं को ढहाने वाला सशक्त जरिया है । चाहे वो कहीं भी हो । आप उसी पर । जोर देते हैं । यही बातें । सब तरफ । देखी जा रही हैं ।
धर्म । जैसा कि हम । सामान्य तौर पर । जानते हैं ? या मानते हैं ? मतों । मान्यताओं । रीति रिवाजों । परंपराओं । अंधविश्वासों । आदर्शों के । पूजन की एक श्रंखला है । आपको आपके हिसाब से तय अंतिम सत्य को ले जाने के लिए मार्ग दर्शक गुरूओं के आकर्षण । अंतिम सत्य । आपका प्रक्षेपण है । जो कि आप चाहते हैं । जो आपको खुश करता है । जो आपको मृत्यु रहित । अवस्था की । निश्चितता देता है । तो इन सभी में जकड़ा मन । एक धर्म को जन्म देता है । मत सिद्धांतों का धर्म । पुजारियों द्वारा बनाया गया धर्म । अंधविश्वासों । और आदर्शों की पूजा । इन सबमें । मन जकड़ जाता है । दिमाग । जड़ हो जाता है । क्या यही धर्म है ? क्या धर्म केवल विश्वासों की बात है ? क्या अन्य लोगों के अनुभवों । ज्ञान । निश्चयों का संग्रह धर्म है ? या धर्म केवल नैतिकता भल मनसाहत का अनुसरण करना है ? आप जानते हैं कि - नैतिकता भल मनसाहत । आचरण से । तुलनात्मक रूप से सरल है । आचरण में करना । आ जाता है । ये करें । या न करें । चालाकी आ जाती है । क्योंकि आचरण सरल है । इसलिए आप आसानी से एक आचरण पद्धति का अनुसरण कर सकते हैं । नैतिकता के पीछे घात लगाये बैठा । स्वार्थ । अहं । पुष्ट होता रहता है । बढ़ता रहता है । खूंखार रूप से दमन करता हुआ । अपना विस्तार करता रहता है । तो क्या यह धर्म है ?
आपको ही खोजना होगा कि - सत्य क्या है ? क्योंकि यही बात है । जो महत्व की है । आप अमीर हैं । या गरीब । आप खुशहाल वैवाहिक जीवन बिता रहें हैं । और आपके बच्चे हैं । ये सब बातें । अपने अंजाम पर पहुंचती है । जहाँ हमेशा मृत्यु हैं । तो विश्वास । अपने मत के किसी भी रूप । पूर्वाग्रह रहित होकर । आपको सत्य को जानना होगा । आपको खुद अपने लिए । ओज और तेज सहित । खुद पर अवलम्बित हो पहल करनी होगी कि - सत्य क्या है ?  भगवान क्या है ?  मत और आपका विश्वास । आपको कुछ नहीं देगा । विश्वास केवल भृष्ट करता है । जकड़ता है । अंधेरे में ले जाता है । खुद ही ओज और तेज सहित उठ पहल करने पर ही आत्म निर्भर । मुक्त हुआ जा सकता है । जे. कृष्णमूर्ति

बकवास चैटिंग

यह हमारी एक परंपरा रही है । जो कहती है । आपको भले होने । या सच्चा इन्सान बनने के लिए । दुख उठाने होंगे । ईसाई जगत में भी । और हिन्दुओं में भी । भले ही इसे । दोनों अलग अलग शब्दों में व्यक्त करते हैं । हिन्दू । इसे कर्म वगैरह कहते हैं । ईसाई । कुछ और । और वो सब जगह कहते हैं कि - आपको अनिवार्यतः दुख से गुजरना होगा । जो कि शारीरिक ही नहीं । मनोवैज्ञानिक । मानसिक भी होगा । इसका मतलब यह कि - आपको कठिनतम कोशिशें करनी होंगी । अथक प्रयास करने होंगे । संताप झेलने होंगे । आपको अपना सर्वस्व देना होगा । सब त्यागना होगा । सबका दमन करना होगा ।
यह हमारी परंपरा रही है । पूर्व और पश्चिम जगत दोनों में । जबकि दुख सारी मानव जाति के लिए समान ही है । और ये कह रहे हैं कि - आपको एक विशेष द्वार ? से गुजरना होगा ।
क्या कोई एक व्यक्ति है ? जो इस वक्ता के साथ आए । और कहे कि - इस दुख को खत्म होना है । इस दुख से गुजरने की कोई जरूरत नहीं । इसे समाप्त करना है । आप समझ रहे हैं । मैं क्या कह रहा हूँ ? दुख अनिवार्य नहीं है । यह जीवन का बहुत ही विध्वंसक तत्व है । दुख । खुशी की तरह ही वैयक्तिता का निर्माण करता है । यानि दुख कुछ आपका निजी । रहस्यपूर्ण । केवल अपना । अन्य किसी का नहीं । जबकि मानवता वैश्विक दुख से । अनन्त संताप से । युद्धों से । भुखमरी से । हिंसा से गुजर रही है । आप देख रहे हैं ? वह विभिन्न रूपों में दुखों को झेल ही रही है । इसलिए उसने यह स्वीकार कर लिया है कि - यह तो अपरिहार्य है ही । तो क्या इन शब्दों को सकारात्मक रूप में लिया जाना चाहिए । या खुद को बदलने के लिए । जागरूकता के स्रोत के रूप में ।
हम वैचारिकता की पूजा करते हैं । जितना ज्यादा । और तीवृता से । हम सोचते हैं । उतने ही बड़े माने जाते हैं । सभी दार्शनिकों ने असंख्य संकल्पनाएं दी हैं । पर यदि हम अपने ही भृम का निरीक्षण करें । अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में संकीर्ण ढंग से देखने के रवैये को देखें । घर पर रोजमर्रा की दिनचर्या में देखें । इन सबके प्रति जागरूक रहें । तो देखें कि - कैसे विचार । अविरत समस्याएं बनाने में ही लगा रहता है । विचार छवि बनाता है । और छवि बाँटती है । यह देखना बुद्धिमत्ता है । खतरे को खतरे की तरह देखना । बुद्धिमत्ता है । मनोवैज्ञानिक खतरों को देखना । बुद्धिमत्ता है । पर प्रकटतया हम इन चीजों को नहीं देखते ।
इसका मतलब ये है कि - कोई आपको हमेशा हांकता रहे । कारण बताकर उपदेश देता रहे । धकेलता रहे । संचालित करता रहे । या कहता रहे । अनुनय करे कि - कुछ करो । तो ठीक । वरना आप अन्य सारे समय अपने आप जागरूक रहने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं । आप चाहते हैं कि - एक आदमी हमेशा आपको जागरूक रखने के लिये । यह सब करने के लिए । आपके साथ साथ हमेशा रहे । बताये कि - ये करना । ये ये नहीं करना । यहाँ जाना है । यहां नहीं । और ऐसा कोई भी नहीं करेगा । यहाँ तक कि अति जागरूक व्यक्ति । बुद्ध पुरूष भी नहीं । क्योंकि 


यदि कोई जागरूक । बुद्ध पुरूष । आपके पीछे इस तरह पड़ भी जाये । तो आप केवल उसके दास या गुलाम की तरह हो जायेंगे । आप समझ रहे हैं न ।
तो यदि किसी के पास जिन्दादिली है । शारीरिक उर्वरता है । मनोवैज्ञानिक ऊर्जा है । जो कि अभी आपके आंतरिक द्वंद्वों । चिंता । बकवास चैटिंग । अनन्त गप बाजी में व्यर्थ ही खर्च कर रहे हैं । आप अपनी ही नहीं अन्य लोगों की शक्ति भी व्यर्थ नष्ट कर रहे हैं । यही जिन्दादिली । शारीरिक । और मानसिक शक्ति । अथवा ऊर्जा । आत्म अवधान में लगाई जा सकती है । वहाँ यह अत्यंत महत्वपूर्ण होती है ।
यही वह ऊर्जा है । जिसका आप सबंधों के दर्पण में । अपने आपको देखने पहचानने के लिए निवेश कर सकते हैं । हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । इन्हीं सम्बंधों में हमें संभृमों । गढ़ी हुई छवियों । व्यर्थताओं । ओढ़े हुए सिद्धांतों को देख पहचान कर । इनसे बाहर निकलना है । इनसे निवृत्ति ही हमें मुक्ति के आकाश में ले जाएगी । जहाँ सच्ची बुद्धिमत्ता प्रकट होती है । जो हमें जीवन का सही रास्ता दिखाती है । तो चलिये इसी मुक्ति की राह पर हम साथ साथ चलें ।
जब कोई चेतन स्तर पर जागरूक होता है । तब वह अपने अवचेतन में गहरे पैठे - ईर्ष्या । संघर्ष । इच्छाओं । लक्ष्यों । गुस्से की वजहों की खोज की शुरूआत भी कर देता है । जब मन अपने ही बारे में सम्पूर्ण प्रक्रिया की खोज का इरादा रखता है । तब हर घटना । हर प्रतिक्रिया । अपने ही बारे में जानने । अपनी ही खोज के लिए । महत्वपूर्ण हो जाती है ।
इस सबके लिए धैर्य पूर्ण अवधान की आवश्यकता होती है । यह अवधान उस मन का पर्यवेक्षण नहीं होता । जो निरंतर संघर्ष । द्वंद्व में । और यह सीखना चाहता है कि - कैसे जागरूक रहा जाये ? तब आप जानेंगे कि - जागरण के घंटों की तरह ही । आपके सोने के घंटे भी महत्वपूर्ण हैं कि - तब जीवन एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है । जब तक आप । अपने आपको नहीं जानते । भय निरंतर बना रहेगा । और अन्य सारे संभृम भी । जो आपका स्व या मैं पैदा करता रहता है ।
जब मन निर्णयों । निष्कर्षों । सूत्र बद्धता के बोझ से दबा हुआ होता है । तब जिज्ञासा प्रतिबंधित होती है । यह बहुत जरूरी है कि - खोज जिज्ञासा हो । उस तरह नहीं । जैसे एक क्षेत्र के विशेषज्ञ । वैज्ञानिक । या मनोवैज्ञानिकों द्वारा कोई खोज की जाती है । पर एक व्यक्ति द्वारा । अपने ही बारे में जानने के लिये । अपने जीवन की पूर्णता को जानने के लिये । अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के दौरान । अपने ही चेतन । और अचेतन स्तर पर । मन की । शल्य क्रिया किया जाना । नितांत आवश्यक है । कोई कैसे कार्य व्यवहार करता है ? किसी की क्या प्रतिक्रिया होती है ? जब कोई आफिस जाता है । या बस पर सवार होता है । जब कोई अपने बच्चे । अपने पति । या पत्नि से । बातचीत करता है आदि आदि । जब तक मन अपनी संपूर्णता के प्रति जागरूक नहीं होता । वैसा नहीं । जैसा कि - वो होना चाहता है । बल्कि जैसा कि - वो है । जब तक कोई अपने फैसलों । धारणाओं । आदर्शों । अनुपालन की 


जाने वाली गतिविधियों के प्रति जागरूक नहीं होता । यथार्थ की सृजनात्मक धारा के आने की कोई संभावना नहीं होती ।
आत्म ज्ञान एक प्रक्रिया नहीं । जिसके बारे में पढ़ा जाए । या कल्पना की जाये । प्रत्येक व्यक्ति को अत्यधिक सजग होकर । खुद की ही क्षण प्रति क्षण की गतिविधियों में इसकी खोज करनी पड़ती है ।
इस सजगता में एक कुछ होने या ना होने की इच्छा रहित । एक विशेष विश्रांति । एक सकारात्मक । जागरूकता होती है । जिसमें मुक्ति की एक आश्चर्यजनक भावना चेतना में आती है ।
यह अहसास केवल मिनट भर के लिए । या केवल सेकण्ड भर के लिये ही हो सकता है । पर काफी होता है । यह मुक्ति की भावना । स्मृति से नहीं आती । यह एक जीवंत चीज है । लेकिन मन इसका स्वाद लेना चाहता है । इसका स्मृति में संचय करना । और बार बार अधिक मात्रा में चाहता है ।
इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरूकता । केवल आत्म ज्ञान द्वारा ही संभव है । आत्म ज्ञान आता है । हमारे जीवन के क्षण प्रति क्षण को गहराई से देखने से कि - कैसे हम बोलते हैं ? हमारे हाव भाव । जिस तरह हम वातार्लाप करते हैं । इन सब चीजों को देखने से । अचानक इनके पीछे छिपे आशयों का ज्ञान होता है ।
इसके बाद ही । भय से मुक्त हुआ जा सकता है । जब तक भय है । तब तक प्रेम नहीं हो सकता । भय हमारे जीवन को कलुषता से भर देता है । यह कलुषता किसी भी प्रार्थना । किसी भी आदर्श । या गतिविधि से नहीं मिटाई जा सकती । इस भय का कारण मैं अहं का होना है । यह मैं अपनी इच्छाओं । माँगों । लक्ष्यों सहित बहुत ही जटिल है । हमारे मन को इस सारी प्रक्रिया को समझना है । और यह समझ चुनाव रहित चौकन्‍ने पन ( जागरूकता ) से आती है ।
जब हम अपने बारे में जागरूक रहते हैं । तो सारा जीवन मैं अहं स्व को उघाड़ने का जरिया बन जाता है । यह स्व एक जटिल प्रक्रिया है । जो केवल सम्बन्धों में । हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों । जिस तरह हम बातचीत करते हैं । जिस तरह हम कोई फैसला लेते हैं । हिसाब किताब करते हैं । जिस तरह हम अपनी और अन्य लोगों की आलोचना करते हैं । इन सब चीजों के बारे में जागरूकता पूर्वक देखने से मैं का सत्य उदघाटित अनावरित होता है ।
इस सबसे हमारी अपनी विचार धारा की बंधी बंधाई दशाएं अनावृत होती हैं । तो क्या यह बहुत जरूरी नहीं है कि -

हम इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहें ।
पल दर पल सत्य क्या है ? इसकी जागरूकता से उस समयातीत । आत्म की खोज की जा सकती है । आत्म ज्ञान के बिना आपका अंतःकरण । आत्म कुछ भी नहीं । जब हम अपने आपको नहीं जानते ?? तब तक आत्मा । अन्तःकरण । शब्द मात्र होते हैं । ये एक इशारा । आश्चर्य । एक पाखण्ड । एक विश्वास । और एक भृम होता है । जिसमें मन पलायन कर सकता है । जब कोई मैं को समझना शुरू करता है । जब कोई अपनी दिन प्रतिदिन की सारी भिन्न भिन्न गतिविधियों को देखता समझता है । उनके प्रति जागरूक रहना । आरंभ करता है । तो इस समझ में अनायास ही उस नामातीत । समयातीत का अभ्युदय होता है । अस्तित्व में आता है । पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि - वो नामातीत । आत्म ज्ञान की परिलब्धि होता है । नामातीत आत्म ज्ञान की परिलब्धि नहीं है । उसके बाद अंतःकरण में स्व नहीं दिखता । मन मस्तिष्क उसे नहीं पा सकते । वह तभी अस्तित्व में होता है । जब मन शांत होता है । ( कुछ लोग किसी की मृत्यु पर भी कहते हैं कि - वो शांत हो गया ) मन के शांत होने पर । वह अस्तित्व में होता है । मन जब सहज रहता है । भंडार गृह की तरह । अनुभवों । स्मृतियों के संचय । मूल्यांकन करने में नहीं लगा होता । तब वह सहज मन । उस पूर्ण यथार्थ को समझ पाता है । वह मन नहीं । जो मात्र शब्दों । ज्ञान । सूचनाओं से भरा हुआ हो ।
अपने आपको जानने के लिए । अमित अन्वेषण । अत्यंत श्रम की आवश्यकता है । उतनी मेहनत से भी ज्यादा । जो आप जीवन निर्वाह के लिए करते हैं । जो दिनचर्या मात्र है । यहाँ विचार के प्रत्येक क्षण में अदभुत जागरूकता । और सतत प्रेक्षण की माँग होती है ।
जिस क्षण से आप विचार प्रक्रिया में जिज्ञासा प्रारंभ करते हैं । जिसमें प्रत्येक विचार को अलग करना । और उसके बारे में अंत तक सोचना है । तब आप जानते हैं कि - यह कितना कठिन है । यह एक आलसी आदमी का आनन्द नहीं है । यह करना आवश्यक है । क्योंकि यह केवल मन ही है । जो स्वयं को पुरानी स्मृतियों । पुरानी विचलितताओं । उलझनों । परस्पर आत्म विरोध से खुद को रिक्त कर सकता है । और यह मन ही है । जो यथार्थ के सृजनात्मक संवेग के साथ नयापन लिये रहता है । तब मन खुद ही कर्मों का सृजन करता है । जो उसके अस्तित्व को अनूठे आयाम के साथ समग्रता से संबंधित करता है । इसके बिना किसी भी तरह के सामाजिक सुधार । या पुर्ननिर्माण । जो कितने ही जरूरी हों । कितने ही लाभदायक हों । किसी भी तरह शांत और खुशहाल विश्व नहीं दे सकते ।
बहुत ही सीधे ढंग से कहें । तो क्या यह मेरे लिए संभव है कि - मैं खुद को विस्मृत कर सकूं ? तुरंत हाँ या नहीं मत कहिये । विचारिये । हम नहीं जानते कि - इसका अर्थ क्या है । धार्मिक किताबों में यह और वह कहा गया है । लेकिन वह निरे शब्द हैं । और शब्द यथार्थ नहीं होतें । मन के लिए महत्वपूर्ण यह है कि - वो इकट्ठा देखे । अनुभव कर्ता । विचारक । और देखने वाला । या मैं । क्या इसका विलोप हो सकता है ? क्या यह स्वयं खो सकता है ? यह तो पक्का है कि - कोई बाहरी अस्तित्व नहीं । जो इसको गायब कर दे । यदि मन यह कहता है कि - इस मैं को खत्म होना ही चाहिए । क्योंकि इसके मिटने के बाद ही मुझे वह आनन्दमयी दशा प्राप्त होगी । जिसका उल्लेख पवित्र किताबों में किया गया है । तो यह मात्र एक ऐसी क्रिया है । जो इच्छा से प्रेरित है । और एक रूप है । जो अस्तित्व में आना चाहता है । इसलिए मैं अभी भी पूरी तरह बचा रहता है ।
क्या यह मन के लिए संभव है कि - वह प्रेक्षक । दृष्टा । अनुभव कर्ता से बिना किसी उद्देश्य के मुक्त हो जाए । निश्चित ही । अगर कोई उद्देश्य होगा । तो यह उद्देश्य ही अनुभव कर्ता और मैं का निचोड़ होगा । क्या आप बिना किसी मजबूरी के स्वयं को भूल सकते हैं ? बिना किसी इनाम या दंड के भय के स्वयं को भूल सकते हैं ? केवल अपने को भूलना ही है । मुझे नहीं पता कि - आपने कभी ऐसी कोशिश की हो । क्या कभी आपके सामने यह विचार उठा । क्या कभी आपके मन में यह बात आई । और कभी ऐसा खयाल आया भी हो । तो आप तुरन्त कहते हैं - अगर मैं स्वयं को भूल जाऊं । तो मैं इस दुनियां में कैसे जिंऊँगा ? जहाँ हर कोई मुझे एक तरफ धकेलता हुआ । आगे बढ़ना चाह रहा है । इस प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने के लिए आपको सर्वप्रथम यह जानना होगा कि - आप बिना किसी मैं के कैसे जी सकते हैं ? बिना किसी अनुभव कर्ता । बिना किसी आत्म केन्द्रित गतिविधि के । कैसे जी सकते हैं ? यही मैं पन । अनुभव कर्ता होना । आत्म केन्द्रित गतिविधियाँ दुख की सृजक हैं । भृम और दुर्गति का मूल हैं । तो क्या यह संभव है । इस संसार में जीते हुए । इसके सभी जटिल सम्बंधों । घोर दुख में जीते हुए । कोई पूरी तरह उस चीज से बाहर हो जाए । जो मैं को बनाती है । जे. कृष्णमूर्ति 
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