क्यों कल्पनाएं और सिद्धांत हमारे दिमाग में जड़ें बना लेते हैं ? क्यों हमारे लिए तथ्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाते । बजाय संकल्पनाओं के । सिद्धांतों के ? क्यों संकल्पनात्मक । सैद्धांतिक पक्ष तथ्यों की अपेक्षा इतना महत्वपूर्ण हो जाता है । क्या हम तथ्य को नहीं समझ पाते । या हम में इसकी सामर्थ्य ही नहीं है । या हम तथ्य का । सच का सामना करने से डरते हैं ? इसलिए आयडियाज । विचार । संकल्पनाएं । अनुमान तथ्य से पलायन का एक जरिया बन जाते हैं । आप लाख भागें । आप सभी तरह की ऊटपटांग बातें कर लें । पर तथ्य यह है कि - हमीं लोगों में से कई महत्वाकांक्षी है । कई काम वासना में धंसे हुए हैं । तथ्य यह है कि - हमीं में से कई क्रोधी हैं । और इसी तरह के दर्जनों तथ्य । आप इन सबका दमन कर सकते हैं । आप इनकी दिशा बदल इनको चुप करा देते हैं । जो दमन का ही एक अन्य प्रकार है । आप इन पर नियंत्रण भी पा लेते हैं । लेकिन ये सब दमन । नियंत्रित करना । अनुशासन में आ जाना । संकल्पनाओं द्वारा होता है । क्या सिद्धांत संकल्पनाएं । मत । वाद हमारी ऊर्जा को नष्ट नहीं करते ? क्या विचार हमारे मन मस्तिष्क को कुंद नहीं बनाते । आप अनुमान लगाने । दूसरों को उद्धत करने में कुशल हो सकते हैं ? लेकिन एक जड़ मन ही दूसरों को उद्धत करता है ।
यदि आप विपरीत का द्वंद्व एकबारगी ही खत्म कर दें । और तथ्य के साथ जीने लगें । तो आप अपने अन्दर उस ऊर्जा को मुक्त कर देंगे । जो तथ्य का बखूबी सामना कर लेती है । हममें में से बहुत से लोगों के लिए विरोधाभासों का ऐसी विशेष परिधि होती है । जो हमारे मन मस्तिष्क को जकड़े रखती है । हम करना कुछ चाहते हैं । और कर कुछ और ही रहे होते हैं । लेकिन यदि हम उस तथ्य का सामना करें । जो हम करना चाहते हैं । तो विरोधाभास नहीं रहेगा । इसलिए यदि मैं एक बार में ही विरोधाभास के संपूर्ण भाव को खत्म कर दूं । तो मैं मन पूरी तरह उस तथ्य की समझ से वास्ता रखेगा - जो मैं हूं । जो तथ्य है ।
आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । और दूसरा कोई नहीं करता । तो आपका ईश्वर में विश्वास करना । और किसी अन्य का ईश्वर में विश्वास नहीं करना । आप लोगों को एक दूसरे से बांटता है । सारी दुनियां में विश्वास ही हिन्दुत्व । बौद्ध । ईसाईयत । मुस्लिम । और अन्य धर्म सम्प्रदायों में संगठित हुवा हुआ है । और आदमी को आदमी से अलग कर रहा है । बांट रहा है । हम भृम में हैं । और हम सोचते हैं कि - विश्वास के द्वारा हम अपने भृम को दूर कर लेंगे ।
लेकिन हमारा विश्वास ही भृम पर एक और परत बनकर चढ़ जाता है । लेकिन विश्वास भृम के तथ्य से पलायन मात्र है । यह हमें भृम के तथ्य का सामना करके । उसे समझने में मदद नहीं करता । बल्कि हमें उसी भृम में ले आता है । जिसमें हम अभी हैं । भृम को समझने के लिए विश्वास जरूरी नहीं है । और विश्वास हमारे और हमारी समस्या के बीच एक झीनी चादर का काम करता है । तो धर्म जो कि संगठित विश्वास है । जो हम हैं । हमारे भृम के तथ्य से पलायन मात्र बन जाता है । वह आदमी जो भगवान पर विश्वास करता है । या जो भविष्य में भगवान पर विश्वास करने वाला है । या वो जो अन्य किसी तरह का किसी पर विश्वास रखता है । यह सब - जो वो है । उस तथ्य से पलायन करना मात्र है । क्या आप उन लोगों को नहीं जानते । जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं । पूजा करते हैं । विशेष तरह के मंत्रों और शब्दों का जप करते हैं । और अपनी रोजाना की आम जिन्दगी में दूसरों पर प्रभुत्व जमाते हैं । अत्याचारी हैं । महत्वाकांक्षी हैं । धोखेबाज हैं । बेईमान हैं । क्या ऐसे लोग भगवान को पा सकेंगे ? क्या ऐसे लोग वाकई में भगवान को तलाश रहे हैं ? क्या भगवान शब्दों के दोहराव । जप और विश्वास से मिल जायेगा ? लेकिन कुछ लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं । वो भगवान की पूजा करते हैं । वो रोज मन्दिर जाते हैं । और वो वो सब करते हैं । जो - जो वो हैं । उन्हें इस तथ्य से दूर ले जाता है । ऐसे कुछ लोग आप सोचते हैं । सम्माननीय हैं । क्योंकि खुद आप भी तो यही हैं ना ।
कोई हमारी खुशामद करता है । हमें अपमानित या दुखी करता है । या हमें चोट पहुंचाता है । या प्यार जताता है । तो इन सब बातों को हम संग्रह क्यों कर लेते हैं ? इन अनुभवों को ढेर और इनकी प्रतिक्रियाओं के अलावा हम क्या हैं ? हम कुछ भी नहीं हैं । अगर हमारा कोई नाम ना हो । किसी से जुड़ाव ना हो । कोई विश्वास या मत ना हो । यह ना कुछ होने का भय ही हमें बाध्य करता है कि - हम इन सब तरह के अनुभवों को इकट्ठा करें । संग्रह करें । और यह भय ही चाहे वो जाने में हो या अनजाने में । यह भय ही है । जो हमारी एकत्र करने । संग्रह करने की गतिविधियों के बाद हमें अन्दर ही अन्दर तोड़ने । विघटन और हमारे विनाश के कगार पर ले आता है ।
यदि हम इस भय के सच के बारे में जान सकें । तो यह सत्य ही हमें इस भय से मुक्त करता है । ना कि किसी भय से मुक्त होने के उद्देश्य से लिया गया कोई संकल्प । क्योंकि वाकई हम कुछ भी नहीं हैं । हमारा नाम और पद हो सकता है । हमारी संपत्ति और बैंक में खाता हो सकता है । हो सकता है । आपके पास ताकत हो । और आप प्रसिद्ध भी हों । लेकिन इन सब सुरक्षा उपायों के बावजूद हम कुछ नहीं हैं । आप इस ना कुछ होने । खालीपन से अनजान हो सकते हैं । या आप सहज ही नहीं चाहते कि - आप इस ना कुछ पने को जाने । लेकिन ये हमेशा यहीं आपके
पास ही अन्दर ही होता है । आप होते ही नहीं । यही होता है । आप इससे बचने के लिए चाहे जो कर लें । आप इससे पलायन के लिए चाहे कितने ही कुटिल उपाय कर लें । कितनी ही वैयक्तिक या सामूहिक हिंसा कर लें । वैयक्तिक या सामूहिक पूजा पाठ सत्संग कर लें । ज्ञान या मनोरंजन के द्वारा इससे बचें । लेकिन जब भी आप सोयें । या जागें । हमारा ना कुछ पना हमेशा यहीं होता है । आप इस ना कुछ होने और इसके भय से केवल तभी संबंध बना सकते हैं । जब आप अपने इससे बचाव या पलायन के प्रति बिना पसंद या ना पसंद के जागरूक रह सकें ।
आप इससे किसी अलग या वैयक्तिक शै की तरह नहीं जुड़े हैं । आप वो अवलोकन कर्ता नहीं हैं । जो इसे एक दूरी से इसे देख रहे हैं । लेकिन आपके बिना । जो कि सोच रहा है । अवलोकन कर रहा है । यह नहीं है । आप और यह ना कुछ पना एक ही है । आप और यह ना कुछ होना । एक संयुक्त घटना है । दो अलग अलग प्रकृम नहीं हैं । यदि आप जो कि सोचने वाले हैं । इससे डरे हुए हैं । और इससे ऐसे व्यवहार करते हैं । जैसे यह आपसे कुछ अलग या विपरीत है । तो आपके द्वारा इसके प्रति उठाया गया कोई भी कदम निश्चित ही । अनिवार्यतः आपको भृम और उससे उपजे द्वंद्व और विपदाओं संतापों में ले जायेगा ।
जब यह पता चल जाता है कि - इस ना कुछ पने को को अनुभव करने वाले आप ही हैं । तब वह भय जो कि तभी रहता है । जब कि विचार करने वाला अपने विचार से अलग रहता है । और इसलिए इससे कोई सम्बंध स्थापित करना चाहता है । यह भय पूरी तरह खो जाता है । केवल तभी मन के लिए थिर या अचल हो पाना । संभव होता है । और इस शांति निर्वेद पन में ही परम सत्य होता है ।
जे कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं का निचोड़ उनके सन 1929 में दिये गये वक्तव्य में है । जिसमें उन्होंने कहा -
सच एक पथ रहित भूमि है । यानि सच ऐसा गंतव्य है । जहां तक कि सुनिश्चित बंधे बंधाये मार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता । इंसान को यदि सच तक पहुंचना है । तो वो ऐसा किसी संगठन । किसी पंथ । किसी परंपरा । या रूढ़ि । संत । महात्मा । पंडे । पुजारी । या रीति रिवाज के अनुसरण से नहीं पहुंच सकता । ना ही किसी दार्शनिक ज्ञान । या मनोवैज्ञानिक तकनीक से ही सच तक पहुंच संभव है । यदि किसी को सच का पता लगाना है । तो उसे खुद को संबंधों के दर्पण में देखना होगा । अपने मन के तत्वों को समझना होगा । अवलोकन करना होगा । ना कि बौद्धिक विश्लेषण । या आत्म विश्लेषण । खयाली चीर फाड़ से यह संभव हो सकेगा । इंसान ने अपनी सुरक्षा की बाड़ के रूप में । अपनी ही धार्मिक । राजनीतिक । वैयक्तिक आदि कई छवियां बना रखी हैं । इंसान के व्यवहार में ये प्रतीकों विचारों और विश्वासों के रूप में प्रकट होती हैं । इन गढ़ी हुई छवियों का बोझ । इंसान की सोच । उसके रिश्ते । और उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी पर हावी रहता है । एक दूसरे के बारे में गढ़ी हुई ये छवियां ही इंसानी समस्याओं का कारण हैं । क्योंकि ये एक आदमी को दूसरे से अलग करती हैं । दो व्यक्तियों में अलगाव बनाती हैं । इंसान के मन में पहले से ही स्थापित धारणाओं के आधार पर जीवन के प्रति उसका नजरिया आकार लेता है । जो आदमी की
चेतना में है । वही उसका पूरा अस्तित्व होता है । किसी व्यक्ति का नाम । पंरपरा और परिवेश से ग्रहण बातें ही उसकी सतही सांस्कृतिक और निजता की पहचान बनते हैं । लेकिन आदमी का अनूठा पन उसकी बाहरी छदम पहचान में नहीं । अपितु अपनी चेतना की सभी तत्वों से पूरी तरह मुक्त हो रहने में निहित है । जो सारी मानवता के लिए एक समान रूप से लागू होता है । इसलिए किसी भी व्यक्ति का सारी मानवता से अलग । किसी प्रकार का अस्तित्व नहीं है ।
मुक्ति कोई प्रतिक्रिया नहीं है । ना ही कोई चुनाव । या पसंद है । यह आदमी का ही दिखावा है कि - क्योंकि वह चुन रहा है । इसलिए वह मुक्त है । मुक्ति विशुद्ध अवलोकन है । बिना किसी दिशा या कारण के । बिना किसी सजा या दंड के । भय या इनाम के । मुक्ति का कोई निहितार्थ या उद्देश्य भी नहीं होता । ऐसा नहीं है कि - जब किसी मनुष्य का पूरा विकास हो जाता है । तो मनुष्यत्व का चरम आ जाता है । तब वो मुक्त हो जाता है । पर उसके अस्तित्व के पहले कदम पर ही मुक्ति भी निहित है । मुक्ति भी होती ही है । अवलोकन में से ही कोई देखना शुरू करता है कि - कहां कहां मुक्ति का अभाव है । कमी है । कहां मुक्ति नहीं है ? वो बंध रहा है । मुक्ति हमारे दैनिक जीवन । उसकी गतिविधियों को बिना पसंद नापसंद के । या चयन रहित होकर देखने । या अवधान । ध्यान में रहने में पाई जाती है ।
विचार समय है । विचार अनुभव और ज्ञान से जन्मता है । अनुभव और ज्ञान समय और अतीत से अलग नहीं किये जा सकते । समय इंसान का मनौवैज्ञानिक दुश्मन है । हमारे कर्म ज्ञान पर आधारित होते हैं । यानि समय पर आधारित होते हैं । इसलिए इंसान हमेशा ही अतीत का दास या गुलाम होता है । विचार हमेशा सीमित होता है । उसकी सीमाएं होती हैं । इसलिए हम अनवरत नित्य ही द्वंद्व और संघर्ष में जीते हैं । मनोवैज्ञानिक विकास नाम की कोई चीज नहीं होती । जब आदमी अपने ही विचारों की गतिविधियों के प्रति जाग जाता है । अवधान ध्यान पूर्ण हो जाता है । तो वह देख पाता है कि - विचारक और विचार के बीच में क्या कोई अंतर है भी । वह देख पाता है कि - अवलोकन कर्ता और अवलोकन । अनुभव कर्ता और अनुभव के बीच क्या कोई अंतर है भी । वह जान जाता है कि - इनके बीच अंतर । एक भृम है । तब वहां केवल विशुद्ध अवलोकन रह जाता है । जो कि वो अंतर दृष्टि है । जो अतीत की किसी भी तरह की छाया से रहित होती है । यह समयातीत अंतर दृष्टि मन में गहरा । अत्यंतिक मूल बदलाव लाती है ।
पूरी तरह नकार । पूर्ण निषेध ही । सकार का निचोड़ है । जब उन सभी चीजों का निषेध या नकार हो जाता है । जिन्हें कि विचार द्वारा मनौवैज्ञानिक रूप से पैदा किया जाता है । -तब जो शेष रहता है - वह ही प्रेम है । जो परम संवेदना या करूणा भी है । जो परम प्रज्ञा या समझ भी है । जे. कृष्णमूर्ति
यदि आप विपरीत का द्वंद्व एकबारगी ही खत्म कर दें । और तथ्य के साथ जीने लगें । तो आप अपने अन्दर उस ऊर्जा को मुक्त कर देंगे । जो तथ्य का बखूबी सामना कर लेती है । हममें में से बहुत से लोगों के लिए विरोधाभासों का ऐसी विशेष परिधि होती है । जो हमारे मन मस्तिष्क को जकड़े रखती है । हम करना कुछ चाहते हैं । और कर कुछ और ही रहे होते हैं । लेकिन यदि हम उस तथ्य का सामना करें । जो हम करना चाहते हैं । तो विरोधाभास नहीं रहेगा । इसलिए यदि मैं एक बार में ही विरोधाभास के संपूर्ण भाव को खत्म कर दूं । तो मैं मन पूरी तरह उस तथ्य की समझ से वास्ता रखेगा - जो मैं हूं । जो तथ्य है ।
आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । और दूसरा कोई नहीं करता । तो आपका ईश्वर में विश्वास करना । और किसी अन्य का ईश्वर में विश्वास नहीं करना । आप लोगों को एक दूसरे से बांटता है । सारी दुनियां में विश्वास ही हिन्दुत्व । बौद्ध । ईसाईयत । मुस्लिम । और अन्य धर्म सम्प्रदायों में संगठित हुवा हुआ है । और आदमी को आदमी से अलग कर रहा है । बांट रहा है । हम भृम में हैं । और हम सोचते हैं कि - विश्वास के द्वारा हम अपने भृम को दूर कर लेंगे ।
लेकिन हमारा विश्वास ही भृम पर एक और परत बनकर चढ़ जाता है । लेकिन विश्वास भृम के तथ्य से पलायन मात्र है । यह हमें भृम के तथ्य का सामना करके । उसे समझने में मदद नहीं करता । बल्कि हमें उसी भृम में ले आता है । जिसमें हम अभी हैं । भृम को समझने के लिए विश्वास जरूरी नहीं है । और विश्वास हमारे और हमारी समस्या के बीच एक झीनी चादर का काम करता है । तो धर्म जो कि संगठित विश्वास है । जो हम हैं । हमारे भृम के तथ्य से पलायन मात्र बन जाता है । वह आदमी जो भगवान पर विश्वास करता है । या जो भविष्य में भगवान पर विश्वास करने वाला है । या वो जो अन्य किसी तरह का किसी पर विश्वास रखता है । यह सब - जो वो है । उस तथ्य से पलायन करना मात्र है । क्या आप उन लोगों को नहीं जानते । जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं । पूजा करते हैं । विशेष तरह के मंत्रों और शब्दों का जप करते हैं । और अपनी रोजाना की आम जिन्दगी में दूसरों पर प्रभुत्व जमाते हैं । अत्याचारी हैं । महत्वाकांक्षी हैं । धोखेबाज हैं । बेईमान हैं । क्या ऐसे लोग भगवान को पा सकेंगे ? क्या ऐसे लोग वाकई में भगवान को तलाश रहे हैं ? क्या भगवान शब्दों के दोहराव । जप और विश्वास से मिल जायेगा ? लेकिन कुछ लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं । वो भगवान की पूजा करते हैं । वो रोज मन्दिर जाते हैं । और वो वो सब करते हैं । जो - जो वो हैं । उन्हें इस तथ्य से दूर ले जाता है । ऐसे कुछ लोग आप सोचते हैं । सम्माननीय हैं । क्योंकि खुद आप भी तो यही हैं ना ।
कोई हमारी खुशामद करता है । हमें अपमानित या दुखी करता है । या हमें चोट पहुंचाता है । या प्यार जताता है । तो इन सब बातों को हम संग्रह क्यों कर लेते हैं ? इन अनुभवों को ढेर और इनकी प्रतिक्रियाओं के अलावा हम क्या हैं ? हम कुछ भी नहीं हैं । अगर हमारा कोई नाम ना हो । किसी से जुड़ाव ना हो । कोई विश्वास या मत ना हो । यह ना कुछ होने का भय ही हमें बाध्य करता है कि - हम इन सब तरह के अनुभवों को इकट्ठा करें । संग्रह करें । और यह भय ही चाहे वो जाने में हो या अनजाने में । यह भय ही है । जो हमारी एकत्र करने । संग्रह करने की गतिविधियों के बाद हमें अन्दर ही अन्दर तोड़ने । विघटन और हमारे विनाश के कगार पर ले आता है ।
यदि हम इस भय के सच के बारे में जान सकें । तो यह सत्य ही हमें इस भय से मुक्त करता है । ना कि किसी भय से मुक्त होने के उद्देश्य से लिया गया कोई संकल्प । क्योंकि वाकई हम कुछ भी नहीं हैं । हमारा नाम और पद हो सकता है । हमारी संपत्ति और बैंक में खाता हो सकता है । हो सकता है । आपके पास ताकत हो । और आप प्रसिद्ध भी हों । लेकिन इन सब सुरक्षा उपायों के बावजूद हम कुछ नहीं हैं । आप इस ना कुछ होने । खालीपन से अनजान हो सकते हैं । या आप सहज ही नहीं चाहते कि - आप इस ना कुछ पने को जाने । लेकिन ये हमेशा यहीं आपके
पास ही अन्दर ही होता है । आप होते ही नहीं । यही होता है । आप इससे बचने के लिए चाहे जो कर लें । आप इससे पलायन के लिए चाहे कितने ही कुटिल उपाय कर लें । कितनी ही वैयक्तिक या सामूहिक हिंसा कर लें । वैयक्तिक या सामूहिक पूजा पाठ सत्संग कर लें । ज्ञान या मनोरंजन के द्वारा इससे बचें । लेकिन जब भी आप सोयें । या जागें । हमारा ना कुछ पना हमेशा यहीं होता है । आप इस ना कुछ होने और इसके भय से केवल तभी संबंध बना सकते हैं । जब आप अपने इससे बचाव या पलायन के प्रति बिना पसंद या ना पसंद के जागरूक रह सकें ।
आप इससे किसी अलग या वैयक्तिक शै की तरह नहीं जुड़े हैं । आप वो अवलोकन कर्ता नहीं हैं । जो इसे एक दूरी से इसे देख रहे हैं । लेकिन आपके बिना । जो कि सोच रहा है । अवलोकन कर रहा है । यह नहीं है । आप और यह ना कुछ पना एक ही है । आप और यह ना कुछ होना । एक संयुक्त घटना है । दो अलग अलग प्रकृम नहीं हैं । यदि आप जो कि सोचने वाले हैं । इससे डरे हुए हैं । और इससे ऐसे व्यवहार करते हैं । जैसे यह आपसे कुछ अलग या विपरीत है । तो आपके द्वारा इसके प्रति उठाया गया कोई भी कदम निश्चित ही । अनिवार्यतः आपको भृम और उससे उपजे द्वंद्व और विपदाओं संतापों में ले जायेगा ।
जब यह पता चल जाता है कि - इस ना कुछ पने को को अनुभव करने वाले आप ही हैं । तब वह भय जो कि तभी रहता है । जब कि विचार करने वाला अपने विचार से अलग रहता है । और इसलिए इससे कोई सम्बंध स्थापित करना चाहता है । यह भय पूरी तरह खो जाता है । केवल तभी मन के लिए थिर या अचल हो पाना । संभव होता है । और इस शांति निर्वेद पन में ही परम सत्य होता है ।
जे कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं का निचोड़ उनके सन 1929 में दिये गये वक्तव्य में है । जिसमें उन्होंने कहा -
सच एक पथ रहित भूमि है । यानि सच ऐसा गंतव्य है । जहां तक कि सुनिश्चित बंधे बंधाये मार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता । इंसान को यदि सच तक पहुंचना है । तो वो ऐसा किसी संगठन । किसी पंथ । किसी परंपरा । या रूढ़ि । संत । महात्मा । पंडे । पुजारी । या रीति रिवाज के अनुसरण से नहीं पहुंच सकता । ना ही किसी दार्शनिक ज्ञान । या मनोवैज्ञानिक तकनीक से ही सच तक पहुंच संभव है । यदि किसी को सच का पता लगाना है । तो उसे खुद को संबंधों के दर्पण में देखना होगा । अपने मन के तत्वों को समझना होगा । अवलोकन करना होगा । ना कि बौद्धिक विश्लेषण । या आत्म विश्लेषण । खयाली चीर फाड़ से यह संभव हो सकेगा । इंसान ने अपनी सुरक्षा की बाड़ के रूप में । अपनी ही धार्मिक । राजनीतिक । वैयक्तिक आदि कई छवियां बना रखी हैं । इंसान के व्यवहार में ये प्रतीकों विचारों और विश्वासों के रूप में प्रकट होती हैं । इन गढ़ी हुई छवियों का बोझ । इंसान की सोच । उसके रिश्ते । और उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी पर हावी रहता है । एक दूसरे के बारे में गढ़ी हुई ये छवियां ही इंसानी समस्याओं का कारण हैं । क्योंकि ये एक आदमी को दूसरे से अलग करती हैं । दो व्यक्तियों में अलगाव बनाती हैं । इंसान के मन में पहले से ही स्थापित धारणाओं के आधार पर जीवन के प्रति उसका नजरिया आकार लेता है । जो आदमी की
चेतना में है । वही उसका पूरा अस्तित्व होता है । किसी व्यक्ति का नाम । पंरपरा और परिवेश से ग्रहण बातें ही उसकी सतही सांस्कृतिक और निजता की पहचान बनते हैं । लेकिन आदमी का अनूठा पन उसकी बाहरी छदम पहचान में नहीं । अपितु अपनी चेतना की सभी तत्वों से पूरी तरह मुक्त हो रहने में निहित है । जो सारी मानवता के लिए एक समान रूप से लागू होता है । इसलिए किसी भी व्यक्ति का सारी मानवता से अलग । किसी प्रकार का अस्तित्व नहीं है ।
मुक्ति कोई प्रतिक्रिया नहीं है । ना ही कोई चुनाव । या पसंद है । यह आदमी का ही दिखावा है कि - क्योंकि वह चुन रहा है । इसलिए वह मुक्त है । मुक्ति विशुद्ध अवलोकन है । बिना किसी दिशा या कारण के । बिना किसी सजा या दंड के । भय या इनाम के । मुक्ति का कोई निहितार्थ या उद्देश्य भी नहीं होता । ऐसा नहीं है कि - जब किसी मनुष्य का पूरा विकास हो जाता है । तो मनुष्यत्व का चरम आ जाता है । तब वो मुक्त हो जाता है । पर उसके अस्तित्व के पहले कदम पर ही मुक्ति भी निहित है । मुक्ति भी होती ही है । अवलोकन में से ही कोई देखना शुरू करता है कि - कहां कहां मुक्ति का अभाव है । कमी है । कहां मुक्ति नहीं है ? वो बंध रहा है । मुक्ति हमारे दैनिक जीवन । उसकी गतिविधियों को बिना पसंद नापसंद के । या चयन रहित होकर देखने । या अवधान । ध्यान में रहने में पाई जाती है ।
विचार समय है । विचार अनुभव और ज्ञान से जन्मता है । अनुभव और ज्ञान समय और अतीत से अलग नहीं किये जा सकते । समय इंसान का मनौवैज्ञानिक दुश्मन है । हमारे कर्म ज्ञान पर आधारित होते हैं । यानि समय पर आधारित होते हैं । इसलिए इंसान हमेशा ही अतीत का दास या गुलाम होता है । विचार हमेशा सीमित होता है । उसकी सीमाएं होती हैं । इसलिए हम अनवरत नित्य ही द्वंद्व और संघर्ष में जीते हैं । मनोवैज्ञानिक विकास नाम की कोई चीज नहीं होती । जब आदमी अपने ही विचारों की गतिविधियों के प्रति जाग जाता है । अवधान ध्यान पूर्ण हो जाता है । तो वह देख पाता है कि - विचारक और विचार के बीच में क्या कोई अंतर है भी । वह देख पाता है कि - अवलोकन कर्ता और अवलोकन । अनुभव कर्ता और अनुभव के बीच क्या कोई अंतर है भी । वह जान जाता है कि - इनके बीच अंतर । एक भृम है । तब वहां केवल विशुद्ध अवलोकन रह जाता है । जो कि वो अंतर दृष्टि है । जो अतीत की किसी भी तरह की छाया से रहित होती है । यह समयातीत अंतर दृष्टि मन में गहरा । अत्यंतिक मूल बदलाव लाती है ।
पूरी तरह नकार । पूर्ण निषेध ही । सकार का निचोड़ है । जब उन सभी चीजों का निषेध या नकार हो जाता है । जिन्हें कि विचार द्वारा मनौवैज्ञानिक रूप से पैदा किया जाता है । -तब जो शेष रहता है - वह ही प्रेम है । जो परम संवेदना या करूणा भी है । जो परम प्रज्ञा या समझ भी है । जे. कृष्णमूर्ति