शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं

क्या आप जानते हैं । धर्म क्या है ? जप तप पूजा या ऐसे अन्य रीति रिवाज धर्म नहीं । धातु पत्थर की मूर्ति  पूजा में भी नहीं । न मंदिर । न मस्जिद । न चर्च । न गुरुद्वारा में है । बाइबिल । गीता । कुरआन । ग्रन्थ साहब । पढ़ने या दिव्य पवित्र कहे जाने वाले नामों को तकिया कलाम बना लेने में भी नहीं है । यह आदमी के अन्य अंधविश्वासों में भी नहीं है । ये सब धर्म नहीं ।
धर्म अच्छाई । भलाई । शुभता का अहसास है । प्रेम है । जो जीती जागती भागती दौड़ती नदी की तरह अनन्त सा बह रहा है । इस अवस्था में आप पाते हैं कि - एक क्षण ऐसा है । जब कोई किसी तरह की खोज बाकी नहीं रही । और खोज का अन्त ही किसी पूर्णतः समग्रतः भिन्न का आरंभ है । ईश्वर सत्यकीखोज पूरी तरह अच्छा बनना । दयालु बनने की कोशिश । धर्म नहीं । मन की ढंपी छुपी कूट चालाकियों से परे । किसी संभावना का अहसास । उस अहसास में जीना । वही हो जाना । यह असली धर्म है । पर यही तभी संभव है । जब आप उस गड्ढे को पूर दें । जिसमें आपका - अपनापन । अहंकार । आपका कुछ भी होना । रहता है । इस गड्ढे से बाहर निकल जिंदगी की नदी में उतर जाना धर्म है । जहां जीवन का आपको संभाल लेने का अपना ही विस्मयकारी अंदाज है । क्योंकि आपकी ओर से । आपके मन की ओर से । कोई सुरक्षा या संभाल नहीं रही । जीवन जहां चाहे । आपको ले चलता है । क्योंकि आप उसका खुद का हिस्सा हैं । तब ही

सुरक्षा की समस्या का अंत हो जाता है । इस बात का भी कि लोग क्या कहेंगे ? क्या नहीं कहेंगे ? और यह जीवन की खूबसूरती है ।
एक आदमी जो ईश्वर में विश्वास करता है । ईश्वर को नहीं खोज सकता । ईश्वर एक अज्ञात अस्तित्व है । और इतना अज्ञात कि हम ये भी नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व है । यदि आप वाकई किसी चीज को जानते हैं । वास्तविकता के प्रति खुलापन रखते हैं । तो उस पर विश्वास नहीं करते । जानना ही काफी है । यदि आप अज्ञात के प्रति खुले हैं । तो उसमें विश्वास जैसा कुछ होना अनावश्यक है । विश्वास । आत्म प्रक्षेपण का एक ही एक रूप होता है । और केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं । आप अपने हीरो लड़ाकू विमान उड़ाने वालों का विश्वास देखिये । जब वो बम गिरा रहे होते हैं । तो कहते हैं कि - ईश्वर उनके साथ है । तो आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । जब लोगों पर बम गिरा रहे होते हैं । लोगों का शोषण कर रहे होते हैं । आप ईश्वर में विश्वास करते हैं । और जी तोड़ कोशिश करते हैं कि - कहीं से भी किसी भी तरह से अनाप शनाप पैसा आ जाये । आपने भृष्टाचार । लूट खसोट से कोहराम मचा रखा है । आप अपने देश की सेना पर अरबों खरबों रूपये खर्च करते हैं । और फिर आप कहते हैं कि - आप में दया । सदभाव है । दयालुता है । आप अहिंसा के पुजारी हैं । तो जब तक विश्वास है । अज्ञात के लिए कोई स्थान नहीं । वैसे भी आप अज्ञात के बारे में सोच नहीं सकते । क्योंकि अज्ञात तक विचारों की पहुंच नहीं होती । आपका मन अतीत से जन्मा है । वो कल का परिणाम है । क्या ऐसा बासा मन अज्ञात के प्रति खुला हो सकता है । आपका मन । बासे पन का ही पर्याय है । बासा पन ही है । यह केवल एक छवि प्रक्षेपित कर सकता है । लेकिन प्रक्षेपण कभी भी यथार्थ वास्तविकता नहीं होता । इसलिये विश्वास करने वालों का ईश्वर वास्तविक ईश्वर नहीं है । बल्कि ये उनके अपने मन का प्रक्षेपण है । उनके मन द्वारा स्वान्तः सुखाय गढ़ी गई एक छवि है । रचना है । यहां वास्तविकता 


यथार्थ को जानना समझना तभी हो सकता है । जब मन खुद की गतिविधियों प्रक्रियाओं के बारे में समझ कर । एक अंत समाप्ति पर आ पहुंचे । जब मन पूर्णतः खाली हो जाता है । तभी वह अज्ञात को ग्रहण करने योग्य हो पाता है । मन तब तक खाली नहीं हो सकता । जब तक वो संबंधों की सामग्री सबंधों के संजाल को नहीं समझता । जब तक वह धन संपत्ति और लोगों से संबंधों की खुद की प्रकृति नहीं समझ लेता । और सारे संसार से यथार्थ वास्तविक संबंध नहीं स्थापित कर लेता । जब तक वो संबंधों की संपूर्ण प्रक्रिया । संबंधों में द्वंद्वात्मकता । रिश्तों के पचड़े नहीं समझ लेता । मन मुक्त नहीं हो सकता । केवल तब जब मन पूर्णतः निस्तब्ध शांत पूर्णतया निष्क्रिय निर उधम होता है । प्रक्षेपण करना छोड़ देता है । जब वह कुछ भी खोज नहीं रहा होता । और बिल्कुल अचल ठहरा होता है । तभी वह पूर्ण आंतरिक और कालातीत अस्तित्व में आता है ।
एक निश्छल निस्वार्थ दिल का होना । ध्यान का आरंभ है । जब हम उसके बारे में बात करना चाहते हैं । तो मन मस्तिष्क के अंतस्तल की कोशिशों की आवश्यकता होगी । हमें पहला कदम उसके सबसे निकट के बिंदु से उठाना होगा । ध्यान का फल है - शुभता । और निश्छल ह्रदय - ध्यान का आरंभ है । हम जीवन की बहुत सी चीजों के बारे में बात करते हैं । प्रभुता । महत्वाकांक्षा । भय । लोभ । ईर्ष्या । मृत्यु के संबंध में बहुत सी बातें करते हैं । अगर आप देखें तो । अगर आप इनके भीतर तक जाएं तो । यदि आप ध्यान पूर्वक सुने तो । ये सारी बातें एक ऐसे मन को खड़ा करने का आधार हैं । जो ध्यान में सक्षम हो । आप ध्यान के शब्द से खेल सकते हैं  । ध्यान नहीं कर सकते । यदि आप महत्वाकांक्षी हों । यदि आपका मन प्रभुत्व का आकांक्षी है । संस्कारों में बंधा है । स्वीकार और अनुसरण में लगा है । तो आप ध्यान की खूबसूरती का अतिरेक नहीं देख सकते ।
समयबद्ध रूप से इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिशें । मन की निश्छलता को । निस्वार्थ भाव को । खत्म करती हैं । और आपको चाहिए । एक निश्छल मन । एक खुला ह्रदय । जो आकाश की तरह खाली हो । एक दिल जो बिना

विचारे । निरूद्देश्य देना चाहता हो । बिना किसी प्रतिफल की आशा के । क्षुद्रतम से लेकर । जितना भी उसके पास हो । उसे देने की त्वरितता । बिना किसी असमंजस । भले बुरे की परवाह बगैर । मान रहित । किसी ऊंचाईयों की तलाश की कोशिश बगैर । बिना प्रसिद्धि की लालसा में । ऐसे उर्वर मन की भूमि पर ही शुभता फूलती फलती है । और ध्यान शुभता के पुष्प का खिलना ही है ।
क्या सत्य कुछ निर्णायक चरम और स्थिर सी जड़ चीज है ? या हम चाहते हैं कि - सत्य कुछ निर्णायक सी चरम और स्थिर जड़ सी चीज हो । ताकि हमें उसके नीचे आसरा मिल सके । हम चाहते हैं कि वो चिर स्थायी हो । ताकि हम उसे पकड़ सकें । उसमें खुशियां ढूंढ सकें । पर क्या सत्य पूरी तरह निरंतर कितनी बार भी अनुभव किये जाने पर भी वैसा का वैसा रहने वाली चीज है ? अनुभवों का दोहराव । स्मृतियों का संचयन है । ऐसा नहीं है क्या ? मौन के क्षणों में । मैं एक सत्य अनुभव करता हूं । पर यदि मैं इसे स्मृति और अनुभव के रूप में पूर्ण और निरपेक्ष स्थिर कर दूं । तो क्या वह सत्य रहेगा ? क्या सत्य सततता है । स्मृति की उपज है ? या सत्य केवल तब मिलता है । जब मन नितांत स्थिर होता है ? जब मन स्मृतियों की जकड़ से परे होता है । स्मृतियों की उपज के रूप में पहचान का कोई केन्द्र नहीं होता । पर सब कुछ के प्रति एक होश या चेतना भर होती है । जो मैं कह रहा हूं । जो कुछ भी अपने संबंधों में मैं कर रहा हूं । मेरी गतिविधियों में । सब कुछ के सत्य को प्रतिक्षण देखते हुए । जैसा वो है  । निश्चित ही यही ध्यान का ढंग है । क्या नहीं ? जब मन ठहरा हुआ हो । तब एक बोध मात्र होता है । यह बोध मात्र मन का ठहराव । तब तक नहीं होता । जब तक खुद से बेपरवाही । एक उनमना पन नहीं होता । और यह उनमना पन किसी भी प्रकार के अनुशासन । किसी भी संप्रभुता के अनुशीलन । वो प्राचीन हो । या आधुनिक से उपलब्ध नहीं होता । विश्वास प्रतिरोध अलगाव पैदा करता है । और जहां अलगाव हो । वहां प्रशांत धीरता की संभावना नहीं रहती । यह धीरता स्वयं को पूर्ण रूप से समझने । अपने " मैं " जो कि कई द्वंद्वों के अस्तित्व से मिलकर खड़ा हुआ है । को समझने के बाद ही आती है । यह एक कठिन कार्य है । तो हम कई अन्य जुगाड़ों करामातों की ओर मुड़ जाते हैं । जिन्हें हम ध्यान का नाम देते हैं । मन की यह चालाकियां ध्यान नहीं हैं । ध्यान आत्म ज्ञान का आरंभ है । और ध्यान के बिना कोई आत्म ज्ञान नहीं । जे. कृष्णमूर्ति
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ध्यान जीवन की महानतम कला है । और इसका सौन्दर्य इसमें भी है कि - इसे किसी अन्य से सीखना संभव नहीं । इसकी कोई तकनीक नहीं । और इसलिए इस पर कोई आधिपत्य भी नहीं । जे कृष्णामूर्ति
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