रविवार, नवंबर 20, 2011

वहां भी एक पहुँचे हुये महात्‍मा की कब्र है

एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्‍न हो गया । और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया । बंजारा बड़ा प्रसन्‍न था । गधे के साथ । अब उसे पैदल यात्रा न करनी पड़ती थी । सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था । और गधा बड़ा स्‍वामी भक्‍त था । लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पडा । और मर गया । दुख में उसने उसकी कब्र बनायी । और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा ।
उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी है । तो वह भी झुका कब्र के पास । इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे । उसने कुछ रूपये कब्र पर चढ़ाये । बंजारे को हंसी भी आई आयी । लेकिन तब तक भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालुम न पडा । और उसे यह भी समझ में आ गया कि यह बड़ा उपयोगी व्‍यवसाय है ।
फिर उसी कब्र के पास बैठकर रोता । यही उसका धंधा हो गया । लोग आते । गांव गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी । और गधे की कब्र किसी पहूंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी । ऐसे वर्ष बीते । वह बंजारा बहुत धनी हो गया । फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था । वह भी यात्रा पर था । और उस गांव के करीब से गुजरा । उसे भी लोगों ने कहा - एक महान आत्‍मा की कब्र है । यहां दर्शन किये बिना मत चले जाना । वह गया । देखा उसने इस बंजारे को बैठा ।
तो उसने कहा - किसकी कब्र है यहाँ ? और तू यहां बैठा क्‍यों रो रहा है ?
उस बंजारे ने कहा - अब आपसे क्‍या छिपाना । जो गधा आपने दिया था । उसी की कब्र है । जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया । और मर कर और ज्‍यादा साथ दे रहा है ।
सुनते ही फकीर खिलखिला कर हंसाने लगा ।
उस बंजारे ने पूछा - आप हंसे क्‍यों ?
फकीर ने कहा - तुम्‍हें पता है । जिस गांव में मैं रहता हूं । वहां भी एक पहुँचे हुये महात्‍मा की कब्र है । उसी से तो मेरा काम चलता है ।
बंजारे ने पूछा - वह किस महात्‍मा की कब्र है ? तुम्‍हें मालूम है ।
उसने कहा - मुझे कैसे । नहीं । पर क्‍या आपको मालूम है ? नहीं मालूम हो सकता । वह इसी गधे की मां की कब्र है ।
धर्म के नाम पर अंधविश्‍वासों का बड़ा विस्‍तार है । धर्म के नाम पर थोथे । व्‍यर्थ के क्रियाकांड़ो । यज्ञों । हवनों का बड़ा विस्‍तार है । फिर जो चल पड़ी बात । उसे हटाना मुश्‍किल हो जाता है । जो बात लोगों के मन में बैठ गयी । उसे मिटाना मुश्‍किल हो जाता है । और इसे बिना मिटाये वास्‍तविक धर्म का जन्‍म नहीं हो सकता । अंधविश्‍वास उसे जलने ही न देगा ।
सभी बुद्धिमान व्‍यक्‍तियों के सामने यही सवाल थे । और दो ही विकल्‍प है । एक विकल्‍प है नास्‍तिकता का, जो अंधविश्‍वास को इनकार कर देता है । और अंधविश्‍वास के साथ साथ धर्म को भी इंकार कर देता है । क्‍योंकि नास्‍तिकता देखती है । इस धर्म के ही कारण तो अंधविश्‍वास खड़े होते है । तो वह कूड़े कर्कट को तो फेंक ही देती है । साथ में उस सोने को भी फेंक देती है । क्‍योंकि इसी सोने की बजह से तो कूड़ा कर्कट इकठ्ठा होता हे । न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी । ओशो ।

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