शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

बकवास चैटिंग

यह हमारी एक परंपरा रही है । जो कहती है । आपको भले होने । या सच्चा इन्सान बनने के लिए । दुख उठाने होंगे । ईसाई जगत में भी । और हिन्दुओं में भी । भले ही इसे । दोनों अलग अलग शब्दों में व्यक्त करते हैं । हिन्दू । इसे कर्म वगैरह कहते हैं । ईसाई । कुछ और । और वो सब जगह कहते हैं कि - आपको अनिवार्यतः दुख से गुजरना होगा । जो कि शारीरिक ही नहीं । मनोवैज्ञानिक । मानसिक भी होगा । इसका मतलब यह कि - आपको कठिनतम कोशिशें करनी होंगी । अथक प्रयास करने होंगे । संताप झेलने होंगे । आपको अपना सर्वस्व देना होगा । सब त्यागना होगा । सबका दमन करना होगा ।
यह हमारी परंपरा रही है । पूर्व और पश्चिम जगत दोनों में । जबकि दुख सारी मानव जाति के लिए समान ही है । और ये कह रहे हैं कि - आपको एक विशेष द्वार ? से गुजरना होगा ।
क्या कोई एक व्यक्ति है ? जो इस वक्ता के साथ आए । और कहे कि - इस दुख को खत्म होना है । इस दुख से गुजरने की कोई जरूरत नहीं । इसे समाप्त करना है । आप समझ रहे हैं । मैं क्या कह रहा हूँ ? दुख अनिवार्य नहीं है । यह जीवन का बहुत ही विध्वंसक तत्व है । दुख । खुशी की तरह ही वैयक्तिता का निर्माण करता है । यानि दुख कुछ आपका निजी । रहस्यपूर्ण । केवल अपना । अन्य किसी का नहीं । जबकि मानवता वैश्विक दुख से । अनन्त संताप से । युद्धों से । भुखमरी से । हिंसा से गुजर रही है । आप देख रहे हैं ? वह विभिन्न रूपों में दुखों को झेल ही रही है । इसलिए उसने यह स्वीकार कर लिया है कि - यह तो अपरिहार्य है ही । तो क्या इन शब्दों को सकारात्मक रूप में लिया जाना चाहिए । या खुद को बदलने के लिए । जागरूकता के स्रोत के रूप में ।
हम वैचारिकता की पूजा करते हैं । जितना ज्यादा । और तीवृता से । हम सोचते हैं । उतने ही बड़े माने जाते हैं । सभी दार्शनिकों ने असंख्य संकल्पनाएं दी हैं । पर यदि हम अपने ही भृम का निरीक्षण करें । अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में संकीर्ण ढंग से देखने के रवैये को देखें । घर पर रोजमर्रा की दिनचर्या में देखें । इन सबके प्रति जागरूक रहें । तो देखें कि - कैसे विचार । अविरत समस्याएं बनाने में ही लगा रहता है । विचार छवि बनाता है । और छवि बाँटती है । यह देखना बुद्धिमत्ता है । खतरे को खतरे की तरह देखना । बुद्धिमत्ता है । मनोवैज्ञानिक खतरों को देखना । बुद्धिमत्ता है । पर प्रकटतया हम इन चीजों को नहीं देखते ।
इसका मतलब ये है कि - कोई आपको हमेशा हांकता रहे । कारण बताकर उपदेश देता रहे । धकेलता रहे । संचालित करता रहे । या कहता रहे । अनुनय करे कि - कुछ करो । तो ठीक । वरना आप अन्य सारे समय अपने आप जागरूक रहने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं । आप चाहते हैं कि - एक आदमी हमेशा आपको जागरूक रखने के लिये । यह सब करने के लिए । आपके साथ साथ हमेशा रहे । बताये कि - ये करना । ये ये नहीं करना । यहाँ जाना है । यहां नहीं । और ऐसा कोई भी नहीं करेगा । यहाँ तक कि अति जागरूक व्यक्ति । बुद्ध पुरूष भी नहीं । क्योंकि 


यदि कोई जागरूक । बुद्ध पुरूष । आपके पीछे इस तरह पड़ भी जाये । तो आप केवल उसके दास या गुलाम की तरह हो जायेंगे । आप समझ रहे हैं न ।
तो यदि किसी के पास जिन्दादिली है । शारीरिक उर्वरता है । मनोवैज्ञानिक ऊर्जा है । जो कि अभी आपके आंतरिक द्वंद्वों । चिंता । बकवास चैटिंग । अनन्त गप बाजी में व्यर्थ ही खर्च कर रहे हैं । आप अपनी ही नहीं अन्य लोगों की शक्ति भी व्यर्थ नष्ट कर रहे हैं । यही जिन्दादिली । शारीरिक । और मानसिक शक्ति । अथवा ऊर्जा । आत्म अवधान में लगाई जा सकती है । वहाँ यह अत्यंत महत्वपूर्ण होती है ।
यही वह ऊर्जा है । जिसका आप सबंधों के दर्पण में । अपने आपको देखने पहचानने के लिए निवेश कर सकते हैं । हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । इन्हीं सम्बंधों में हमें संभृमों । गढ़ी हुई छवियों । व्यर्थताओं । ओढ़े हुए सिद्धांतों को देख पहचान कर । इनसे बाहर निकलना है । इनसे निवृत्ति ही हमें मुक्ति के आकाश में ले जाएगी । जहाँ सच्ची बुद्धिमत्ता प्रकट होती है । जो हमें जीवन का सही रास्ता दिखाती है । तो चलिये इसी मुक्ति की राह पर हम साथ साथ चलें ।
जब कोई चेतन स्तर पर जागरूक होता है । तब वह अपने अवचेतन में गहरे पैठे - ईर्ष्या । संघर्ष । इच्छाओं । लक्ष्यों । गुस्से की वजहों की खोज की शुरूआत भी कर देता है । जब मन अपने ही बारे में सम्पूर्ण प्रक्रिया की खोज का इरादा रखता है । तब हर घटना । हर प्रतिक्रिया । अपने ही बारे में जानने । अपनी ही खोज के लिए । महत्वपूर्ण हो जाती है ।
इस सबके लिए धैर्य पूर्ण अवधान की आवश्यकता होती है । यह अवधान उस मन का पर्यवेक्षण नहीं होता । जो निरंतर संघर्ष । द्वंद्व में । और यह सीखना चाहता है कि - कैसे जागरूक रहा जाये ? तब आप जानेंगे कि - जागरण के घंटों की तरह ही । आपके सोने के घंटे भी महत्वपूर्ण हैं कि - तब जीवन एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है । जब तक आप । अपने आपको नहीं जानते । भय निरंतर बना रहेगा । और अन्य सारे संभृम भी । जो आपका स्व या मैं पैदा करता रहता है ।
जब मन निर्णयों । निष्कर्षों । सूत्र बद्धता के बोझ से दबा हुआ होता है । तब जिज्ञासा प्रतिबंधित होती है । यह बहुत जरूरी है कि - खोज जिज्ञासा हो । उस तरह नहीं । जैसे एक क्षेत्र के विशेषज्ञ । वैज्ञानिक । या मनोवैज्ञानिकों द्वारा कोई खोज की जाती है । पर एक व्यक्ति द्वारा । अपने ही बारे में जानने के लिये । अपने जीवन की पूर्णता को जानने के लिये । अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के दौरान । अपने ही चेतन । और अचेतन स्तर पर । मन की । शल्य क्रिया किया जाना । नितांत आवश्यक है । कोई कैसे कार्य व्यवहार करता है ? किसी की क्या प्रतिक्रिया होती है ? जब कोई आफिस जाता है । या बस पर सवार होता है । जब कोई अपने बच्चे । अपने पति । या पत्नि से । बातचीत करता है आदि आदि । जब तक मन अपनी संपूर्णता के प्रति जागरूक नहीं होता । वैसा नहीं । जैसा कि - वो होना चाहता है । बल्कि जैसा कि - वो है । जब तक कोई अपने फैसलों । धारणाओं । आदर्शों । अनुपालन की 


जाने वाली गतिविधियों के प्रति जागरूक नहीं होता । यथार्थ की सृजनात्मक धारा के आने की कोई संभावना नहीं होती ।
आत्म ज्ञान एक प्रक्रिया नहीं । जिसके बारे में पढ़ा जाए । या कल्पना की जाये । प्रत्येक व्यक्ति को अत्यधिक सजग होकर । खुद की ही क्षण प्रति क्षण की गतिविधियों में इसकी खोज करनी पड़ती है ।
इस सजगता में एक कुछ होने या ना होने की इच्छा रहित । एक विशेष विश्रांति । एक सकारात्मक । जागरूकता होती है । जिसमें मुक्ति की एक आश्चर्यजनक भावना चेतना में आती है ।
यह अहसास केवल मिनट भर के लिए । या केवल सेकण्ड भर के लिये ही हो सकता है । पर काफी होता है । यह मुक्ति की भावना । स्मृति से नहीं आती । यह एक जीवंत चीज है । लेकिन मन इसका स्वाद लेना चाहता है । इसका स्मृति में संचय करना । और बार बार अधिक मात्रा में चाहता है ।
इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरूकता । केवल आत्म ज्ञान द्वारा ही संभव है । आत्म ज्ञान आता है । हमारे जीवन के क्षण प्रति क्षण को गहराई से देखने से कि - कैसे हम बोलते हैं ? हमारे हाव भाव । जिस तरह हम वातार्लाप करते हैं । इन सब चीजों को देखने से । अचानक इनके पीछे छिपे आशयों का ज्ञान होता है ।
इसके बाद ही । भय से मुक्त हुआ जा सकता है । जब तक भय है । तब तक प्रेम नहीं हो सकता । भय हमारे जीवन को कलुषता से भर देता है । यह कलुषता किसी भी प्रार्थना । किसी भी आदर्श । या गतिविधि से नहीं मिटाई जा सकती । इस भय का कारण मैं अहं का होना है । यह मैं अपनी इच्छाओं । माँगों । लक्ष्यों सहित बहुत ही जटिल है । हमारे मन को इस सारी प्रक्रिया को समझना है । और यह समझ चुनाव रहित चौकन्‍ने पन ( जागरूकता ) से आती है ।
जब हम अपने बारे में जागरूक रहते हैं । तो सारा जीवन मैं अहं स्व को उघाड़ने का जरिया बन जाता है । यह स्व एक जटिल प्रक्रिया है । जो केवल सम्बन्धों में । हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों । जिस तरह हम बातचीत करते हैं । जिस तरह हम कोई फैसला लेते हैं । हिसाब किताब करते हैं । जिस तरह हम अपनी और अन्य लोगों की आलोचना करते हैं । इन सब चीजों के बारे में जागरूकता पूर्वक देखने से मैं का सत्य उदघाटित अनावरित होता है ।
इस सबसे हमारी अपनी विचार धारा की बंधी बंधाई दशाएं अनावृत होती हैं । तो क्या यह बहुत जरूरी नहीं है कि -

हम इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहें ।
पल दर पल सत्य क्या है ? इसकी जागरूकता से उस समयातीत । आत्म की खोज की जा सकती है । आत्म ज्ञान के बिना आपका अंतःकरण । आत्म कुछ भी नहीं । जब हम अपने आपको नहीं जानते ?? तब तक आत्मा । अन्तःकरण । शब्द मात्र होते हैं । ये एक इशारा । आश्चर्य । एक पाखण्ड । एक विश्वास । और एक भृम होता है । जिसमें मन पलायन कर सकता है । जब कोई मैं को समझना शुरू करता है । जब कोई अपनी दिन प्रतिदिन की सारी भिन्न भिन्न गतिविधियों को देखता समझता है । उनके प्रति जागरूक रहना । आरंभ करता है । तो इस समझ में अनायास ही उस नामातीत । समयातीत का अभ्युदय होता है । अस्तित्व में आता है । पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि - वो नामातीत । आत्म ज्ञान की परिलब्धि होता है । नामातीत आत्म ज्ञान की परिलब्धि नहीं है । उसके बाद अंतःकरण में स्व नहीं दिखता । मन मस्तिष्क उसे नहीं पा सकते । वह तभी अस्तित्व में होता है । जब मन शांत होता है । ( कुछ लोग किसी की मृत्यु पर भी कहते हैं कि - वो शांत हो गया ) मन के शांत होने पर । वह अस्तित्व में होता है । मन जब सहज रहता है । भंडार गृह की तरह । अनुभवों । स्मृतियों के संचय । मूल्यांकन करने में नहीं लगा होता । तब वह सहज मन । उस पूर्ण यथार्थ को समझ पाता है । वह मन नहीं । जो मात्र शब्दों । ज्ञान । सूचनाओं से भरा हुआ हो ।
अपने आपको जानने के लिए । अमित अन्वेषण । अत्यंत श्रम की आवश्यकता है । उतनी मेहनत से भी ज्यादा । जो आप जीवन निर्वाह के लिए करते हैं । जो दिनचर्या मात्र है । यहाँ विचार के प्रत्येक क्षण में अदभुत जागरूकता । और सतत प्रेक्षण की माँग होती है ।
जिस क्षण से आप विचार प्रक्रिया में जिज्ञासा प्रारंभ करते हैं । जिसमें प्रत्येक विचार को अलग करना । और उसके बारे में अंत तक सोचना है । तब आप जानते हैं कि - यह कितना कठिन है । यह एक आलसी आदमी का आनन्द नहीं है । यह करना आवश्यक है । क्योंकि यह केवल मन ही है । जो स्वयं को पुरानी स्मृतियों । पुरानी विचलितताओं । उलझनों । परस्पर आत्म विरोध से खुद को रिक्त कर सकता है । और यह मन ही है । जो यथार्थ के सृजनात्मक संवेग के साथ नयापन लिये रहता है । तब मन खुद ही कर्मों का सृजन करता है । जो उसके अस्तित्व को अनूठे आयाम के साथ समग्रता से संबंधित करता है । इसके बिना किसी भी तरह के सामाजिक सुधार । या पुर्ननिर्माण । जो कितने ही जरूरी हों । कितने ही लाभदायक हों । किसी भी तरह शांत और खुशहाल विश्व नहीं दे सकते ।
बहुत ही सीधे ढंग से कहें । तो क्या यह मेरे लिए संभव है कि - मैं खुद को विस्मृत कर सकूं ? तुरंत हाँ या नहीं मत कहिये । विचारिये । हम नहीं जानते कि - इसका अर्थ क्या है । धार्मिक किताबों में यह और वह कहा गया है । लेकिन वह निरे शब्द हैं । और शब्द यथार्थ नहीं होतें । मन के लिए महत्वपूर्ण यह है कि - वो इकट्ठा देखे । अनुभव कर्ता । विचारक । और देखने वाला । या मैं । क्या इसका विलोप हो सकता है ? क्या यह स्वयं खो सकता है ? यह तो पक्का है कि - कोई बाहरी अस्तित्व नहीं । जो इसको गायब कर दे । यदि मन यह कहता है कि - इस मैं को खत्म होना ही चाहिए । क्योंकि इसके मिटने के बाद ही मुझे वह आनन्दमयी दशा प्राप्त होगी । जिसका उल्लेख पवित्र किताबों में किया गया है । तो यह मात्र एक ऐसी क्रिया है । जो इच्छा से प्रेरित है । और एक रूप है । जो अस्तित्व में आना चाहता है । इसलिए मैं अभी भी पूरी तरह बचा रहता है ।
क्या यह मन के लिए संभव है कि - वह प्रेक्षक । दृष्टा । अनुभव कर्ता से बिना किसी उद्देश्य के मुक्त हो जाए । निश्चित ही । अगर कोई उद्देश्य होगा । तो यह उद्देश्य ही अनुभव कर्ता और मैं का निचोड़ होगा । क्या आप बिना किसी मजबूरी के स्वयं को भूल सकते हैं ? बिना किसी इनाम या दंड के भय के स्वयं को भूल सकते हैं ? केवल अपने को भूलना ही है । मुझे नहीं पता कि - आपने कभी ऐसी कोशिश की हो । क्या कभी आपके सामने यह विचार उठा । क्या कभी आपके मन में यह बात आई । और कभी ऐसा खयाल आया भी हो । तो आप तुरन्त कहते हैं - अगर मैं स्वयं को भूल जाऊं । तो मैं इस दुनियां में कैसे जिंऊँगा ? जहाँ हर कोई मुझे एक तरफ धकेलता हुआ । आगे बढ़ना चाह रहा है । इस प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने के लिए आपको सर्वप्रथम यह जानना होगा कि - आप बिना किसी मैं के कैसे जी सकते हैं ? बिना किसी अनुभव कर्ता । बिना किसी आत्म केन्द्रित गतिविधि के । कैसे जी सकते हैं ? यही मैं पन । अनुभव कर्ता होना । आत्म केन्द्रित गतिविधियाँ दुख की सृजक हैं । भृम और दुर्गति का मूल हैं । तो क्या यह संभव है । इस संसार में जीते हुए । इसके सभी जटिल सम्बंधों । घोर दुख में जीते हुए । कोई पूरी तरह उस चीज से बाहर हो जाए । जो मैं को बनाती है । जे. कृष्णमूर्ति 

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