शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

जडी बूटियों के विभिन्न नाम 1

लेखकीय -- अक्सर आयुर्वेद की औषधियों ।एक ही जडी बूटियों के कई नामों से लोगों को भृम हो जाता है । और वो किसी ग्रन्थ में दूसरे नाम से लिखी औषधि को नहीं जान पाते । ऐसी ही औषधियों के पर्यायवाची
यहां हैं । इसके अलावा दो अन्य भाग भी प्रकाशित किये जायेंगे ।
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महानिम्ब को बृहनिम्ब तथा दीप्यक को यवनिका या अजवाइन कहा जाता है ।
विडंग का नाम क्रिमिशत्रु है । हिंगु । हींग को रामठ भी कहते हैं ।
अजाजी । जीरक । जीरे से कहते हैं । उपकुंचिका को कारवी कहते हैं ।
कटुला । तिक्ता । कटुरोहिणी । कटु नाम की औषधि से कहते हैं ।
तगर । नत । वक्र से कहते हैं । चोच । त्वच । वरांड्ग्क । दारुचीनी से कहते हैं ।
उदीच्य को बालक । मोथा कहते हैं । हीबेर को अम्बुबालक भी कहते हैं ।
पत्रक । दल । तेजपत्ता से । आरक को तस्कर कहते हैं ।
हेमाभ । नाग । नागकेशर । इनको एक ही समझना चाहिये ।
असक । काश्मीरबाह्यीक । कुंकुम से कहते हैं । पुर । कुटनट । महिषाक्ष । पलंड्कषा । गुग्गुल से कहते हैं ।
काश्मीरी । कटफ़ला । श्रीपर्णी इनको एक ही समझना चाहिये ।
शल्लकी । गजभक्ष्या । पत्री । सुरभी । श्रवा । गजारी से कहते हैं ।
आंवला को धात्री । आमलकी । तथा बहेडा को अक्ष एवं विभीतक भी कहते हैं ।
हर्र को पथ्या । अभया । पूतना । हरीतकी भी कहते हैं ।
करंज । कंजा । उदकीर्य्य । दीर्घवृत । इनको एक ही समझना चाहिये ।
यष्टी । यष्टयाह्यय । मधुक । मधुयष्टी । जेठी मधु से कहते हैं ।
औषधि की जड को मूल या ग्रन्थिक भी कहते हैं ।
ऊषण । मरिच को । तथा विश्वा । शुण्ठी । सोंठ को कहते हैं ये महाऔषधि है ।
व्योष । कटुत्रय । त्र्यूषण । को एक ही समझें ।
लांगली को हलिनी । और । शेयसी को गजपिप्पली कहते हैं ।
त्रायन्तीका । त्रायमाणा । उत्सा । सुवहा । इनको एक ही समझना चाहिये ।
चित्रक । शिखी । वह्यि । अग्नि । को एक ही समझें ।
षडग्रन्था । उग्रा । श्वेता । हेमवती । वचा से कहते हैं ।
कुटज । शक्र । वत्सक । गिरिमल्लिका से कहते हैं । इसके बीजों को कलिंड्ग । इन्द्रयव । अरिष्ट कहते हैं ।
मुस्तक । मेघ । मोथा से । तथा कौन्ती को हरेणु भी कहते हैं ।
एला और बहुला बडी इलायची से । सूक्ष्मैला । त्रुटि । छोटी इलायची से कहते हैं ।
भार्ड्गी । पद्मा से । तथा कांजी । ब्राह्मण्यष्टिका से कहते हैं ।
मूर्वा । मधुरसा । और तेजनी । तिक्तवल्लिका से कहते हैं ।
स्थिरा । विदारीगन्ध । शालपर्णी । अंशुमती । एक ही औषधि है ।
लाड्ग्ली । कलसी । क्रोष्टापुच्छा । गुहा । इनको एक ही समझना चाहिये ।
पुनर्नवा । वर्षाभू । कठिल्या । करुणा । ये एक ही हैं ।
एरण्ड को उरूवक । आम । वर्धमानक । नाम से जाना जाता है ।
झषा और नागबला एक ही औषधि के नाम है ।
गोक्षुर । गोखुरू । श्वदंष्ट्रा । एक ही औषधि है ।
शतावरी । वरा । भीरु । पीवरी । इन्दीवरी तथा वरी के नाम से जानी जाती है ।
व्याघ्री । कृष्णा । हंसपादी । मधुस्रवा । वृहती । एक ही औषधि है ।
कण्टकारी । कटेरी । क्षुद्रा । सिंही । निदिग्धिका । इनको एक ही समझना चाहिये ।
वृश्चिका । त्र्यमृता । काली । विष्घनी । सर्पदंता । एक ही औषधि के नाम हैं ।
मर्कटी । आत्मगुप्ता । आर्षेयी । कपिकच्छुका । एक ही औषधि है ।
मुद्रपर्णी । क्षुद्रसहा । मूंग से कहते है । माष्पर्णी एवं महासहा । उडद से कहते हैं ।
दन्डयोन्यड्क । दन्डिनी । त्यजा । परा । महा । इनको एक ही समझना चाहिये ।
न्यग्रोध । वट । बरगद । से तथा अश्वत्थ । कपिल । पीपल से कहते हैं ।
प्लक्ष । गर्दभांड । पर्कटी । कपीतन । को एक ही समझें ।
अर्जुन वृक्ष । पार्थ । कुकुभ । धन्वी । इनको एक ही समझना चाहिये ।
नन्दीवृक्ष । प्ररोही । पुष्टिकारी । ये एक ही हैं ।
वंजुल और वेतस एक ही हैं ।
भल्लातक । अरुष्कर । भिलावा । इनको एक ही समझना चाहिये ।
लोध्र । सारवक । धृष्ट । तिरीट । को एक ही समझें ।
बृहत्फ़ला । महाजम्बु । बालफ़ला । ये एक ही हैं । जलजम्बु । नादेयी । को एक ही समझें ।
कणा । कृष्णा । उपकुंची । शौण्डी । मागधिका । पिप्पली से कहते हैं ।

सोमवार, जुलाई 19, 2010

हाजिर की हुज्जत गये ..?




लेखकीय-- कुछ दिनों से मेरे " बाराह " साफ़्टवेयर में प्राब्लम हो रही है । जिससे लेख के शब्दों में न चाहते हुये भी अशुद्धियां हो जाती हैं । जैसे चन्द्र बिंदी न लग पाना । अणा शब्द का न लिख पाना आदि । इस टेक्नीकल गलती को मद्देनजर रखते हुये पाठकों से उसी सहयोग की अपेक्षा है । धन्यबाद ।
एक आम धारणा है । कि अच्छे साधु संत आजकल कहां मिलते हैं । चारों तरफ़ पाखन्डियो की भरमार है ।
एक बात सोचे । क्या यही विचार कबीर के समय नही थे । रैदास को उस समय लोग जानते थे कि ये उच्च स्तर के संत हैं मीरा को परेशान करने में कोई कसर छोडी गयी ? तुलसी को लोगों ने कम परेशान किया ? ईसा मसीह को कितना परेशान किया ? मुहम्मद साहव का विरोध करने वाले नहीं थे क्या ? संत तबरेज की तो खाल खींच ली गयी थी । कबीर को बाबन बार मौत की सजा दी गयी । गौतम बुद्ध को कितने ही गाली देते थे । राम को तुम लोगो ने कम टेन्शन दी । कृष्ण को कम दुखी किया । किसी भी अच्छे संत का इतिहास उठा कर देखिये । वह आपको सुख शान्ति का मार्ग दिखा रहा था । आप उसको गालिया दे रहे थे । मार रहे थे । इसी को कहा गया है । हाजिर की हुज्जत गये की तलाशी । आप किसकी सेवा करते हैं । आप किसको आदर देते हैं । जो आपको ठगता है । आपको गलत मार्ग दिखाता है । वह आपको सही लगता है । आज कबीर रैदास मीरा ईसामसीह तुलसी मुहम्मद साहब तबरेज आदि की पूजा होती है । एक समय आप ही लोग हाथ धोकर इनके पीछे पड गये थे । ऐसा क्यों हुआ । आज जब ये हमारे बीच हैं नहीं । तब इनको पूजने इनकी महत्ता का क्या लाभ । एक समय जब ये आप को बिना किसी स्वार्थ के ग्यान का मार्ग दिखा रहे थे । आपको खुद आपकी आत्मा के उद्धार मुक्त हेतु सरल सहज उपाय बता रहे
थे । तब आप लाठी लेकर इनके पीछे दौड रहे थे । किसी संत ने आपका क्या ले लिया । जो आप मरने मारने पर आमादा हो जाते है । हिंदू मुसलमान या किसी भी धर्म के संत ने यदि आप गौर से उसकी बात को समझें । तो आपको नेकी का रास्ता । ग्यान का रास्ता । भक्ति का रास्ता स्थायी सुख का रास्ता ही दिखाया होगा । पर आप ने धर्म को तोता की तरह रट लिया है । उससे हटकर आप कुछ नहीं सुनना चाहते । उससे अलग आप को कुछ भी पसन्द नहीं । आप स्वयं ही ग्यानी है ? महाग्यानी ?
आप संत से ग्यान लेने नहीं उसकी परीक्षा करने जाते हैं । उसमें खोट निकालने जाते हैं । यह उसी तरह हुआ कि आप किसी शिक्षक से पडने जाओ और उल्टे उसका इंटरव्यू लेने लगो । आप नौकरी के लिये जाओ और एम्पलायर में मीन मेख निकालने लगो । क्या आपने कभी सोचा है । कि धार्मिक आध्यात्मिक रहस्य कितने गूढ हैं ? जिसका आप सतही स्तर पर । सतही ग्यान पर आकलन करते हैं । अगर आपने थोडे ही शास्त्रों का गम्भीरता से अध्ययन किया होता । तो आपकी तमाम सोच ही बदली हुयी होती ।
अगर धर्म गाली देने के लिये है । लोगों को अंधेरे में ले जाने के लिये है । तो आपने कभी गौर किया है । कि वाल्मीक रामायण ( संस्कृत ) तुलसी रामायण ( हिंदी ) कुरान ए पाक । बाइबिल । गुरु ग्रन्थ साहिब एक ही बार क्यों लिखी गयी । अगर इन्हें " मनुष्य " स्तर पर लिखा गया होता तो हजारों अन्य लेखकों ने और ग्रन्थ लिख डाले होते । दरअसल ये ईश्वरीय प्रेरणा से लिखी गयी । इसलिये इनकी दिव्यता इनकी अहमियत इतने समय के बाद भी ज्यों की त्यों है । इन्हें हरेक किसी के द्वारा लिखा जाना मुमकिन ही नहीं है । अगर आप ने धर्म का अध्ययन किया होता । तो आप को मालूम होता कि ग्यान सीखा नहीं जाता । बल्कि ग्यान पात्र के अनुसार उतरता है । बडे बडे किताब ग्यानी हंसी बनाते हैं कि तुलसी को पत्नी ने झिडक दिया तो रामायण ही लिख डाली । आज तो बहुत से पति स्त्रियों के हाथ पिटते हैं ।
कितनी रामायण लिख गयीं ? तो कहने का अर्थ ये है कि जिस तरह अच्छे बुरे इंसान प्रत्येक काल में मौजूद होते हैं । उसी तरह अच्छे बुरे संत भी होते हैं । पर आप बुरों को जल्दी देख लेते हैं । और फ़िर उसी नजर से सबको देखने लगते हैं । इसके बजाय बुद्धि विवेक से विचार करते हुये संत से ग्यान वार्ता करें । फ़िर अच्छा बुरा चयन करें । और आपको रुचिकर लगे । तो संत के बताये मार्ग पर चले । जरा देखिये रामायण क्या कह रही है । जो विरंचि शंकर सम होई । गुरु बिनु भव निधि तरे न कोई । श्रीकृष्ण ने कहा है । संत मिले तो मैं मिल जाऊं । संत न मोते न्यारे । संत बिना मैं ना मिल पाऊं । कोटि जतन करि डारो । और लोग कहते हैं कि परमात्मा तो सबके अन्दर है । उसके लिये गुरु की आवश्यकता क्या ?

शुक्रवार, जुलाई 16, 2010

हठ योगी

बबलू चालीस साल का हट्टा कट्टा युवक था । और स्वभाव से मिलनसार था । हाँलाकि उससे पहले भी बबलू से मेरी दुआ सलाम थी । लेकिन न तो बबलू जानता था कि मेरी कुन्डलिनी आदि ग्यान में रुचि है । और न ही मैं जानता था कि वो इस दिशा में पिछले सोलह साल से प्रयासरत है । लेकिन एक दिन मेरे एक परिचित यदुनाथ सिंह के साथ जब वो मेरे पास आया तो उस की निगाह एक प्रवचन के कार्यक्रम के दौरान लगाये गये बैनर पर गयी । जिसमें कुन्डलिनी के बारे में लिखा था । उसे भारी जिग्यासा हुयी और वह कुन्डलिनी के वारे में अनेकों प्रश्न करने लगा । मैंने उससे उसकी साधना
के वारे में बात की । कि वह क्या और किस तरह की साधना करता है ? बबलू अपने को " हठ योगी " मानता था । उसकी पत्नी और एक पाँच साल का लङका था । जिसे एक तरह से उसने त्याग रखा था ।यह बबलू का दुर्भाग्य ही था कि ग्यान जिग्यासा के प्रारम्भिक काल में वह बनाबटी बाबाओं के सम्पर्क में आया । और बाद में कोई परिणाम न मिलने पर हताश होकर अपने मन से एक नयी साधना बनाकर उसे हठ साधना कहने लगा । और खुद को " हठ योगी " घोषित कर दिया । मैंने पूछा । क्या है । तुम्हारा
हठ योग ? इस प्रश्न का उत्तर देने में वह बहुत देर तक सोचता रहा । फ़िर बोला । कि मैं अक्सर रात को एक तसले में धूनी आदि लगाकर सभी व्यवस्था करके । मन में हठ धारणा करके एक आसन लगाकर बैठ जाता हूँ । कि प्रभु जैसे तुमने भूतकाल में साधुओं का हठ माना है । मेरा भी मानोगे ?
मैंने मुस्कराते हुये पूछा । कि इस तरह का " हठ " धारण किये हुये तुम्हें कितने साल हो गये ? आठ साल । उसने उत्तर दिया । मैंने कहा । कुछ भी चींटी चींटा जैसा कोई छोटा बङा अनुभव हुआ ? उसने एक आह भरी ।
उसके चेहरे पर घोर निराशा जागी । फ़िर अपने आप को सहज करता हुआ बोला । टाइम लगता है । भाईजी । मैंने कहा । मान लो एक कार खङी हो । और चलने के लिये हर तरह से फ़िट हो । और आप उसके स्टेयरिंग पर बैठकर ये हठ करो । कि ये मेरे बैठने मात्र ही से चल जाय । तो क्या वह चल जायेगी ? आप उसमें चाबी मत लगाओ । उसके अन्य फ़ंक्शन स्टार्ट न करो । तो वह कैसे चलेगी ?
इसके बाद वह हठ योग पर एक लम्बी बहस करने लगा । कैसे अग्यान में जीते है । ये तमाम साधक ? मुझे अस्सी अस्सी साल के ऐसे साधकों से मिलने का अनुभव है । जिन्होंने अपने जीवन के पाँच से लेकर बारह साल तक का बेहद कीमती समय ऐसी ही अग्यानता में नष्ट कर दिया । कोई एक पैर पर खङा रहा । किसी ने हाथ ऊँचा उठा लिया । कोई जल में खङा रहा । कोई तपती धूप और गर्मी में आग के बीच में खुद को तपाता रहा । किसी ने अन्न त्याग दिया । कोई पत्ते ही खाने लगा । किसी ने केश न कटाने का संकल्प कर लिया । किसी ने लिंग की नसें तोङकर उसे निष्क्रिय करवा दिया । कोई वन में चला गया । कोई गुफ़ा में चला गया ..आदि । वास्तव में यह सब शास्त्रों में वर्णित पूर्व श्रेष्ठ उपासकों की एक मनमानी और मनमुखी नकल है । भूतकाल में जिन साधकों ने यह विधियाँ अपनायी थीं । उन्होंने पूर्ण ग्यान का सहारा लिया था । वे मन्त्र आदि उपचार और पूर्णत वैदिक ग्यान परम्परा का अनुसरण करते थे ।
नाकि आजकल के साधकों की तरह एक बात का हठ ले लेते थे । किसी विशेष आसन या मुद्रा में खङे रहना मन की थिरता ( स्थिरता ) के लिये था । शंकर जी और श्रीकृष्ण के भाई बलराम जी ने किसी भी योग साधना के लिये सबसे बङिया " सुखासन " को बताया है । यानी वो आसन जिसमें आप किसी भी प्रकार की तकलीफ़ न महसूस करें । चाहे वो पालती मारकर बैठने की मुद्रा हो या फ़िर शरीर की कोई भी मुद्रा । इसके पीछे वजह ये है । कि यदि आप किसी विशेष आसन से निरंतर कष्ट की अनुभूति करते हैं तो फ़िर साधना में आपका ध्यान नहीं लगेगा । लेकिन सुखासन का ते मतलब भी नहीं है । कि आप इतने सुख में हो कि साधना के स्थान पर आपको नींद आने लगे । हठ योग को कुछ साधु भगवान के प्रति एक पिता और पुत्र जैसा रिश्ता मानकर बालसुलभ हठ की धारणा लेकर चलते हैं । जिसका आशय ये होता है कि जिस प्रकार एक पिता बालक का हठ पूरा करता है । भगवान उनकी भी बात सुनेगा ।
अपनी इस बात को लेकर कालान्तर में हठ योग द्वारा सिद्ध कुछ उदाहरण भी उनके पास मौजूद होते हैं । ये लोग उन उदाहरणों में मौजूद रहस्य को नहीं समझ पाते और अपना जीवन बरबाद कर लेते हैं । वास्तव में इस तरह के जो भी हठ सिद्ध हुये हैं । उनमें अनजाने में एक शुद्ध और निर्मल पवित्र धारणा बन गयी । इस तरह सुरती एकाग्र होकर । आस वास दुबिधा सब खोई । सुरती एक कमल दल होई । वाली क्रिया अनजाने में सहज रूप से हो गयी । और यही करना है । द्रोपदी ने कौन सा हठ कौन सा योग किया था । ग्राह के चन्गुल में फ़ँसे गज ने कौन सा योग किया था । भूतकाल में हुयी सती और पतिवृता स्त्रियों ने कौन सा विशेष योग अपनाया था ? उन्होंने काल की गति तक बदल दी । सूर्य को निकलने से रोक दिया । निश्चित मृत्यु को जीवन में परिवर्तित कर दिया । केवल एक लगन । केवल एक धर्म । इससे अच्छा सरल और सहज योग क्या होगा । बहुत कम लोग जानते होंगे कि गौतम बुद्ध ने भी प्रारम्भ में एक तरह से हठ ही किया था । वन में वृक्ष के नीचे बैठ गये और सोचने लगे कि कैसे प्रभु की प्राप्ति हो । कैसे ग्यान की प्राप्ति हो । बहुत समय बीत गया । हताशा होने लगी । वन के कष्टों ने अत्यन्त व्याकुल कर दिया । तब अंतर्मन से सहज पुकार उठी । कि प्रभु बहुत कष्ट में हूँ । सुख शान्ति का मार्ग कैसे पाऊँ । जो क्रिया सालों में घटित नहीं हुयी । एक क्षण में घटित हो गयी । आकाशवाणी हुयी कि हे साधक अपने शरीर के माध्यम पर ध्यान कर । कोटि जन्म का पंथ था । पल में दिया मिलाय । क्या साधना से घटित हुआ । नहीं एकाग्र प्रार्थना से संभव हुआ । यही एकाग्र प्रार्थना सालों पहले कर लेते तो भी यही क्रिया घटित होती । पर तब " कर्तापन " का हठ था । ये उसी तरह है कि दो लोग कार की सवारी का आनन्द लेना चाहे । तो एक बैठे और दूसरा धक्का मारकर उसको गति दे । फ़िर सवार धक्का दे और धक्का मारने वाला सवारी करे । इसके बजाय आप तरीका जानते हैं तो आराम से सीट पर बैठे चाबी लगाकर स्टार्ट करें और आराम से सफ़र करें । क्या करना है । मैं मारना है । कर्तापन मारना है । अहम बाधक है । यही एकाग्र नहीं होने देता । यही नहीं मिलने देता । गौर करें ।
सुरति फ़ँसी संसार में तासो हुय गयो दूर । सुरति मान थिर करो आठों पहर हजूर ।
जब मैं था तब हरि नहीं । जब हरि हैं मैं नाहिं । सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देख्या मांहि ।
प्रेम गली अति सांकरी । जामें दो न समाय । शीश उतार भूमि धरो तब पैठो घर माहिं ।
यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा ।

गुरुवार, जुलाई 15, 2010

गुरुपूर्णिमा उत्सव पर आप सभी सादर आमन्त्रित हैं ।

गुर्रुब्रह्मा गुर्रुविष्णु गुर्रुदेव महेश्वरा ।
 गुरुः साक्षात पारब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।

श्री श्री 1008 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज " परमहँस "

अनन्तकोटि नायक पारब्रह्म परमात्मा की अनुपम अमृत कृपा से ग्राम - उवाली । पो - उरथान । बुझिया के पुल के पास । करहल । मैंनपुरी । में

सदगुरुपूर्णिमा उत्सव बङी धूमधाम से सम्पन्न होने जा रहा है । गुरुपूर्णिमा उत्सव का मुख्य उद्देश्य इस असार संसार में व्याकुल पीङित एवं अविधा

से ग्रसित श्रद्धालु भक्तों को ग्यान अमृत का पान कराया जायेगा ।
यह जीवात्मा सनातन काल से जनम मरण की चक्की में पिसता हुआ धक्के खा रहा है व जघन्य यातनाओं से त्रस्त एवं बैचेन है ।
जिसे उद्धार करने एवं अमृत पिलाकर सदगुरुदेव यातनाओं से अपनी कृपा से मुक्ति करा देते हैं ।

अतः ऐसे सुअवसर को न भूलें एवं अपनी आत्मा का उद्धार करें । सदगुरुदेव का कहना है । कि मनुष्य यदि पूरी तरह से ग्यान भक्ति के प्रति समर्पण हो । तो आत्मा को परमात्मा को जानने में सदगुरु की कृपा से पन्द्रह मिनट का समय लगता है । इसलिये ऐसे पुनीत अवसर का लाभ उठाकर आत्मा की अमरता प्राप्त करें ।

नोट-- यह आयोजन 25-07-2010 को उवाली ( करहल ) में होगा । जिसमें दो दिन पूर्व से ही दूर दूर से पधारने वाले संत आत्म ग्यान पर सतसंग करेंगे ।
विनीत -


राजीव कुलश्रेष्ठ । आगरा । पंकज अग्रवाल । मैंनपुरी । पंकज कुलश्रेष्ठ । आगरा । अजब सिंह परमार । जगनेर ( 


आगरा ) । राधारमण गौतम । आगरा । फ़ौरन सिंह । आगरा । रामप्रकाश राठौर । कुसुमाखेङा । भूरे बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा । करहल । चेतनदास । न . जंगी मैंनपुरी । विजयदास । मैंनपुरी । बालकृष्ण श्रीवास्तव । आगरा । संजय कुलश्रेष्ठ । आगरा । रामसेवक कुलश्रेष्ठ । आगरा । चरन सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । उदयवीर सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । मुकेश यादव । उवाली । मैंनपुरी । रामवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । सत्यवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । कायम सिंह । रमेश चन्द्र । नेत्रपाल सिंह । अशोक कुमार । सरवीर सिंह ।

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

कुछ और प्रश्न ?

लेखकीय-- ये आप लोगों के कुछ प्रश्न हैं । जो मुझे ई मेल से प्राप्त होते हैं । समयाभाव के कारण सभी के उत्तर देना सम्भव नहीं हो पाता । अतः महत्वपूर्ण प्रश्नों को छाँटकर उनका उत्तर देने की कोशिश कर रहा हूँ । अन्य पाठकों के उत्तर भी शीघ्र ही देने की कोशिश करूँगा । इस लेख में *(एक स्टार ) से आपके प्रश्न हैं । और ** ( दो स्टार ) से मेरे उत्तर हैं । यदि आपको मेरे उत्तर में कोई त्रुटि नजर आये । तो अवश्य सूचित करें । क्योंकि मैं ही ग्यानी हूँ । ऐसा मैं कभी नहीं सोचता । आपके सुझावों और प्रश्नों का हमेशा स्वागत है ।* Respected Rajeev ji,My name is Trayambak Upadhyay. I am from varanasi. I like your blog and would like to talk to you about " atma darshan." What should be a good time to reach you. I am free in weekend (Saturday & Sunday).With regards, Trayambak Upadhyay
** स्नेही उपाध्याय जी ! आत्म ग्यान पर आपकी जिग्यासा जानकर खुशी हुयी । आप किसी भी दिन सुबह
7.00 am to 10.00 am और दोपहर 3.00 pm to 7.00 pm के समय बात कर सकते हैं । मेरा फ़ोन न . और ई मेल लगभग सभी ब्लाग्स में प्रकाशित है ।
* आपने शायद ध्यान न दिया हो पर ओशो ने स्वृणिम बचपन में मग्गा बाबा, पागल बाबा और मस्तो तीन नामों का जिक्र किया है और कहा है कि Enlightenment को पहुँचने वाले किसी भी व्यक्ति को तीन enlightened व्यक्ति सहायता करने के लिये मिलते ही मिलते हैं। पर उनकी कई बातों की तरह यह बात भी एक parable हो सकती है। वे ऐसा कभी नहीं कहते कि उन्हे किसी गुरु की वजह से आत्मग्यान मिला।जे कृष्णमूर्ति भी किसी गुरु की बात नहीं करते। देखा जाये तो गुरुओं की संगत छोड़ने के बाद ही गौतम को बुद्धत्व मिला।
* * जानकारी देने के लिये धन्यवाद । ये तीन व्यक्ति ओशो ने प्रतीक रूप में कहे थे । पहला शिक्षक के रूप में । दूसरा गुरु के रूप में । तीसरा सतगुरु के रूप में । किसी किसी मामले में यह पहला माँ बाप के रूप में । दूसरा किसी भी माध्यम से द्वैत ग्यान के रूप में । तीसरा किसी माध्यम से आत्म ग्यान या अद्वैत के रूप में । मैं आपसे सहमत हूँ । विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरने पर भी ये तीन माध्यम हरेक की जिंदगी में आते हैं । यदि उसे सत्य की प्राप्ति हो तो ?
* मेने आपकी पोस्टों को अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिये एक बलोग बनाया है,
rajeev-swaroopdarshan.blogspot.com
** आपका बेहद धन्यवाद । जो आपने अपना कीमती समय प्रभुकार्य और प्रभुभक्ति में लगाना शुरू कर दिया । इसके सम्बन्ध में इतना ही कह सकता हूँ । " भक्ति स्वतन्त्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहि प्रानी ।" सच्चे दिल से प्रभु का कार्य करने पर मिलने वाले वेतन की कल्पना भी करना मुश्किल है । कि कितना ज्यादा हो सकता है ?
* एक बार आपका लेख पढने को मिला । और मैं आपका अनुसरणकर्ता हो गया ।क्योंकि यह लेख मेरी रूचि के हैं ।और मुझे पहली बार ही दुर्गास्तुती का पाठ करने पर माँ दुर्गा और माँ काली के साक्षात दर्शन हुये थे । और उस समय मेरे कोई गुरुजी नहीं थे । अधेंरा था । समय तो ज्ञात नहीं । परन्तु में माँ काली के स्वरूप से डर गया था । और माँ दुर्गा के संकेत था । क्या चाहिये ? मैंने कहा कुछ नहीं । और दोनो अन्तर्ध्यान हो गयीं । उसके बाद बहुत प्रयत्न वही दर्शन पाने के लिये करा । पर कभी दर्शन नहीं हुये । समझ में नहीं आता क्या करूं ?
* * भले ही आप को लगता है । कि आप इस जीवन के बारे में ही जानते हैं । पर सत्य यह है । कि भगवत प्राप्ति के जीव के प्रयास करोङों जीवन से जारी हैं । जिसे आपका अचेतन बखूबी जानता है । ऐसे ही किसी प्रयास की डोर अनजाने में प्रभु से जुङ जाती है । तब ऐसी घटना हो जाती है । बाद में उसी चीज को आप " कर्ता " बनकर करने की कोशिश करते हैं । जो सफ़ल नहीं होती । इस सम्बन्ध में कबीर साहिब ने लिखा है । " जब मैं था तब हरि नहीं । जब हरि हैं मैं नाहिं । सब अंधियारा मिट गया । जब दीपक देखा माँहि । इसके अतिरिक्त भी जीव जब रोज आने वाली लगभग " आधा घन्टे " की गहरी नींद में जाता है । वह प्रभु के पास ही जाता है । पर क्योंकि प्रभु विधान के अनुसार उसे बक्से में बन्द करके ले जाया जाता है । इसलिये वह इस सत्य को नहीं जान पाता । इसी को " तुरीयातीत अवस्था " कहते हैं ।
ग्यान के पहले अध्याय में " यहीं पर जागना " सिखाया जाता है । तब आपको " अलौकिक " अनुभव होते हैं ।
* मैंने परमहंस योगानन्द जी को गुरू बनाया था । उनके अध्याय आते थे । एक महिने में एक बार । उन अध्यायो का भी बहुत प्रभाव पड़ा था । वो अध्याय भगवत प्राप्ति के नहीं थे । हाँ उन अध्यायों की प्रेरणा से में दोनो भोहों के मध्य चक्र से third eye से लोगों के रोगों का निवारण कर लेता था । इसी बीच में मेने एक गुरू बनाये थे । पर गुरुमन्त्र नहीं मिला था । वो कालभैरव का रविवार को दरबार लगाते थे । और मंगलवार को हनुमान जी पर चोला चड़ाते थे ।
** जिनका जिक्र आपने किया । जहाँ तक मेरी जानकारी है । ये " त्राटक और " ॐ " को लेकर चलते हैं । जो कि " आत्मग्यान " नहीं है । भक्ति भी नहीं है । हाँ योग अवश्य है । और कोई विशेष महत्वपूर्ण नहीं है । कालभैरव और हनुमान की मिश्रित साधना को संकेत में समझें । ये तामसिक साधनायें हैं । जिनका अंत किसी भी रूप में इनसे जुङने वाले के लिये दुखदाई ही होता है । आपको एक रहस्य की बात बता दूँ । सभी सिद्धियाँ जीवन में तो यश और वैभव दे देती हैं । पर अंत में " नरक " में ले जाती हैं । इसमें कोई संशय नहीं है । निर्मल भक्ति ही सब प्रकार से श्रेष्ठ कही गयी है । " निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा । "
* मेने एक विदेशी विद्या सीखी थी । प्राणिक हीलिंग । उस विद्या के द्वारा घर बैठे कितनी भी दूर कोई हो । उसके रोगों का इलाज कर लेता था ? और सामने बैठे तथा अपना भी इलाज कर लेता था । एक बात और । मेरा ध्यान माँ भगवती के चरणो में कभी भी । स्वंय लग जाता था ?
** यह कोई बङी बात नहीं । कुंडलिनी साधना में इस प्रकार की लाखों चीजें हैं । पर इनका पैसे और प्रतिष्ठा के लिये उपयोग नहीं करना चाहिये ।(जैसा कि कुछ लोग करते हैं ) ये खुद को खुद ही फ़ाँसी पर लटकाने के समान है । अभ्यास से ध्यान की अनुभूति भी हो ही जाती है ।
* एक बार मेने भेरो और हनुमान जी के साधक से कोई प्रश्न पूछा । तो उन्होने मुझे बुरे प्रकार से डाट दिया । मुझे चार दिन नींद नहीं आयी । और मेरे को जो कुछ भी प्राप्त हुआ था । सब समाप्त हो गया । योगानन्द जी के अध्यायों पर आधारित पहली परिक्षा उत्तीर्ण भी कर ली थी । और दूसरी परिक्षा की तैयारी चल ही रही थी । और वो भी उत्तीर्ण कर लेता । तो योगानन्द जी के क्रियायोग मुझे सिखाया जाता । इस हादसे के बाद में । योगानन्द जी के बाकी के अध्याय पड़ने में रूचि समाप्त हो गयी । प्रयत्न करके भी नहीं पड़ पा रहा हूँ । क्या इनको प्राप्त करने में,आप मेरी सहायता कर सकते हैं ?
** साधु जीवन धारण करने का वास्तविक अर्थ ही जीवों को प्राप्त ग्यान के अनुसार चेताना या सहायता करना है । मैं हरेक की " अध्यात्म ग्यान " में जितना जानता हूँ । उसके अनुसार सहायता करने की भरपूर कोशिश करता हूँ । यह जीव का अपना भाग्य और लगन है कि उसे कितना प्राप्त होता है ? असली साधु कभी जिग्यासु को डाँटते या उपेक्षित नहीं करते । आप निर्भय हो जाईये ।
* और आपको मेरे लिये " हंस " ग्यान पर लिखने के लिये हार्दिक धन्यवाद ।
* आपका "जय गुरूदेव की" और "जय जय श्री गुरूदेव" के बारे में ज्ञान देने के लिये धन्यवाद ।
* एक जिज्ञासा मन में है,बहुत से लोग "जय श्री राम", " जय श्री कृष्ण", "जय जय श्री राधे", "जय माता की " इत्यादि का अभीवादन के रूप में प्रयोग करतें हैं । उसका क्या प्रयोजन है ?
** यह प्रथ्वीलोक या मृत्युलोक " त्रिलोकी सत्ता " के अन्तर्गत आता है । जिसका अधिपति राम या कृष्ण ( एक ही बात है ) और उसकी पत्नी राधा या सीता के हाथों में है । सरल भाषा में यह यहाँ के राजा रानी है । और राजा रानी की जय जयकार करना पुरातन परम्परा रही है । इतिहास की जानकारी रखने वाले जानते है । अतीत में कई राजाओं की भगवान के समान पूजा हुयी है । शास्त्रों ने भी भू अधिपति को भगवान के तुल्य बताया है । इस तरह से यह एक प्राचीन परम्परा के रूप में चली आ रही है । मैं जिस स्थान पर रहता हूँ । यहाँ " जय भोले की " कहने का रिवाज है । मैंने बहुत से दलित वर्ग को " जय भीम "( डा. अम्बेडकर ) कहते सुना है । राम का वास्तविक अर्थ " रमता " कृष्ण का " आकर्षण । और राधा का " प्रकृति " है । जैसे बालक अवस्था में हमें सर्वप्रथम माँ बाप प्यारे होते हैं । क्योंकि उनके अतिरिक्त हम अन्य को नहीं जानते । उसी प्रकार प्रकृति ( राधा ) और पुरुष ( राम ) ये माँ बाप जैसे लगते हैं । ये जीव भाव है । आत्मा क्योंकि जीव भाव से परे है । अतः वहाँ मामला दूसरा है । जिसको आसानी से समझना और समझाना दोनों ही कठिन है ।
* मेने कबीर दास जी का दोहा पड़ा है ।
" गुरू गोविन्द दौऊ खड़े काके लागुं पांय । "" बलिहारी गुरू आपने जिन गोविन्द दियो बताय । "
इस दोहे के अनुसार मुझे लगता है । प्रारम्भ तो गुरू जी से ही किया जाता है । और जब भगवत प्राप्ति हो जाती है । तो उक्त अभिवादन प्रयोग किये जाते हैं । कृपया इस पर प्रकाश डालियेगा ?
** इसका उत्तर इतना सरल तो नहीं है ।और गुप्त है ? फ़िर भी रामायण की चौपाई से संकेत कर रहा हूँ । शायद आप समझ जाओ । " जेहि जानहि जाहे देयु जनाई । जानत तुमहि तुमहि हुय जाई । "
राम कृष्ण से कौन बङ । तिनहू ने गुरु कीन । तीन लोक के ये धनी गुरु आग्या आधीन ।
और ऊ यती तपी संयासी । ये सब गुरु के परम उपासी ।
वास्तव में रामायण आदि ग्रन्थों में लिखा है । कि गुरु महिमा या संत महिमा का वर्णन ब्रह्मा विष्णु महेश सरस्वती और अपने हजारों मुखों के साथ शेष जी भी नहीं कर सकते । एक साल धैर्य रखें । मेरी बतायी साधना करें । आपके बहुत से प्रश्नों के उत्तर आपको स्वयं ही मिलेंगे ?

ब्लागर अनूप जोशी के कुछ और प्रश्न

dhnyabad sir mujhe itna time dene ke liye. bus sir ab ye to turk hai. me aapke sabhi utaaro ka fir se jabab de sakta hun. lekin us chij se sirf bahas hogi or kuch nahi.mera gyan adhyatam me bahut kam hai.fir bhi kuch sawal puch rahan hun:-सर कृपा कर के इनके जबाब साधारण भाषा में एक छोटी सी लाइन में दे । तो में दूसरो को समझा सकू । उधारण के तौर में में अगर बिज्ञान से कहूँ कि पानी क्या है । तो जबाब आएगा H20,या hyadrogen और oxigen का मिशिरण । लेकिन सर आपकी में बहुत इज्जत करता हूँ । आपकी हर पोस्ट पढता हूँ । अब अगर कोई इंसान कुछ जानना चाह रहा है । तो उसमे किसी को क्रोध नहीं आना चाहिये । क्या कहते है सर ?उत्तर-- अनूप जी आपके इसी प्रश्न के प्रतिप्रश्न में सारे सवालो का जबाब है । आप यदि एक अनपढ व्यक्ति से कहें कि पानी...। @ मैं आपसे पूछता हूँ । ये h2o क्या है । ये oxigen क्या है । तो आपको उसे समझाने हेतु थ्योरी और प्रक्टीकल आदि तमाम चीजें बतानी होंगी । फ़िर भी पानी बन जाने के बाद मूल प्रश्न ज्यों का त्यों रहेगा । आखिर इन दोनों मिश्रण से " पानी " बन कैसे जाता है ? जिस प्रकार आप इस फ़ार्मूले को ( अगर जानकार हैं तभी ) सिद्ध कर सकते हैं । कोई भी आत्म ग्यानी " आत्मा " को जानने का सरल मार्ग आपको बता सकता है । जिस प्रकार भौतिक चीजों का बिग्यान है । आत्मा का भी बिग्यान है । पर आप उसको अध्ययन करोगे तभी तो जान पाओगे ? क्रोध को खत्म करना साधु का पहला अध्याय है ।
१) विदेश में अवतार लेने वाले कुछ भगवान के नाम बता दीजिये ।उत्तर-- अवतार के बारे में संक्षेप में बताना कठिन है । अवतार आधा होता है । आपको लगता होगा कि राम कृष्ण आदि ही अवतार हुये थे । ईसा मसीह । बुद्ध । आल्हा ऊदल ( पांडवों के अवतार ) आदि हजारों छोटे अवतार भी हुये हैं । जिनमें मुझे अपने देश के अवतार भी ठीक से नहीं मालूम । सभी अवतारों का विवरण " हरिवंश पुराण " में दर्ज होता है । जिसमें होने वाला " कल्कि अवतार " भी पहले से लिखा है ।
विदेश में -- मुझे अभी जो ई मेल मिलते हैं । उनमें लिखे विदेशी नाम क्योंकि मुझे अटपटे लगते हैं । अतः एक घन्टे भी याद नहीं रहते तो फ़िर हजारों बरस पूर्व हुये विदेश अवतार कैसे याद रहेंगे ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात-- लगभग दस हजार साल के अन्दर ही प्रथ्वी की भौगोलिक सरंचना । स्थानों के नाम
और संस्कृति में भारी बदलाब हो जाता है । इतिहास में झूठ की भरमार हो जाती है । मैंने प्रक्टीकल उपासना " ही की है । थ्योरी से मेरा वास्ता प्रसंगवश या जरूरत के अनुसार ही रहा है । ( फ़िर भी मैं सही नाम और स्थान मिलते ही आपको और पाठकों को अवश्य ही बताऊँगा । यदि कोई विदेश की जानकारी रखने वाला पाठक जानता हो तो कृपया अनूप जी को बताये । )
२) आपके अनुसार आत्मा एक योनी से दूसरी योनी में जाती है तो क्या जब सृस्ठी कि रचना शास्त्रो अनुसार ब्रह्मा ने कि होगी तो. बजाय कुछ जीव बनाने के इतने खरबों में जीव बनाये होंगे ? और अगर इतने जीव बना दिए तो उनको प्रजनन छमता क्यों दी ?उत्तर-- आत्मा कर्मों के अनुसार अन्य योनिंयो में ( मनुष्य छोङकर ) जाती है । सृष्टि आध्याशक्ति , ब्रह्मा , विष्णु , शंकर ने कृमशः अंडज ( अंडे से ) पिंडज ( शरीर से ) ऊष्मज ( जल आदि से ) और स्थावर ( वृक्ष , पहाङ आदि ) मिलकर बनाई । आध्याशक्ति इन तीनों की माँ थी । जिसका सीता के रूप में अवतार हुआ था । अगर सृष्टि में नर मादा और काम आकर्षण या प्रजनन आदि खेल न होते तो फ़िर क्या होता ? सब खेल ही तो है । जिसमें मोह का परदा है ।
३)भगवान् ने द्वापर । या सतयुग में ही अवतार लिया । अब जबकि कई रावण और कंस से भी कई गुना ज्यादा पापी यहाँ है तो अभी क्यों नहीं ।उत्तर -- लगभग प्रत्येक युग में अवतार होता है । आप अभी के राक्षस प्रवृति के लोगों की तुलना रावण आदि से कर रहे हैं । इनकी हैसियत उनके सामने मच्छर के बराबर भी नहीं है । वर्तमान में मलेच्छ प्रवृति के लोग बङेंगे । जब अधर्म अपनी सीमाओं को तोङ देगा । तब " कल्कि अवतार " होगा । जो
कुछ ही समय में होने वाला है । इस तरह के स्पष्ट रहस्य आप जानना चाहते हैं । तो एक सरल मन्त्र में आपको बता दूँगा । जिसके बाद आप खुद जान जायेंगे । बाकी इस तरह के रहस्य खोले नहीं जाते ।
४)अन्य धर्म वाले जो हमारे धर्म को नहीं मानते । और हम से कही गुना ज्यादा है ।वो भी क्या अज्ञानी है ? और अगर भगवान के रूप अनेक है । तो क्या आप भगवान के उन रूपों कि आराधना करते हो ?उत्तर-- सनातन धर्म एक ही है । जैसे मनुष्य के रूप में सब एक ही हैं । सिर्फ़ भाषा का अंतर होता है । जैसे , बिल्ली , केट ,बिलाब..अगर आप खोजें तो एक ही चीज के अलग अलग भाषाओं के अनुसार हजारों नाम हैं । भगवान as a मन्त्रालय । जो परमात्मा की सृष्टि का मन्त्रालय या संचालन करते हैं । ये सिर्फ़ अपने लोक के मालिक @ अथार्टी होते हैं । अगर आप ईसाई सिख उर्दू धर्म शास्त्र का अध्ययन करें । तो उसमें भी वही बात है । जो हिंदू धर्म ग्रन्थों में । मनुष्य को जो अच्छा लगता है । वह उसी को प्राप्त करता है । मैं " अद्वैत " मत का हूँ । जिसमें एक ही सर्वत्र है । दूसरा नहीं ।
५) मुझे जो कुछ अध्यातम लोगो ने बताया है कि अपनी योनी में अच्छे कर्म करने वाला आदमी कि योनी पाता है तो फिर यहाँ कुछ गरीब । कुछ अमिर । कुछ स्वस्थ । कुछ अपंग। कैसे हो जाते है ? और अगर ये पुराने जन्म का पाप है तो वो आदमी क्यों बना । कीड़ा क्यों नहीं ?उत्तर-- मनुष्य का जन्म दुबारा से चौरासी लाख योनियों को । जो साढे बारह लाख साल में पूरी होती है । को भोगने के बाद प्राप्त होता है ।शीघ्र ही दुबारा मानव जन्म अच्छे कर्मों से नहीं ग्यान से प्राप्त होता है । लाखों लोगों के करोंङो जन्मों के अलग अलग संस्कार होते हैं । उसी के अनुसार जीवन और स्वस्थ रोगी अमीर गरीब आदि स्थिति प्राप्त होती है ।
७) बाकी सर । मेने बिज्ञान हर चीज को सिद्ध करता है ये कहा था । बिज्ञान कोई चीज परदे में नहीं करता । सामने करता है । तो हम तो अज्ञानी है । अब हम तो कुण्डलनी शक्ति या महामंत्र नहीं ले सकते । एक अज्ञानी को इतना बता दे कि साधारण एक लाइन में हम कोई भी भगवान कि सिधता को कैसे देख सकते है ?
उत्तर-- ये सूर्य चन्दा अनोखी प्रकृति विविधिता भरा रंग बिरंगा जीवन बिग्यान की बदौलत है । या भगवान की बदौलत ? आप खुली आँखो से भगवान का विग्यान देखें । और फ़िर मनुष्य का बिग्यान । उसका बिग्यान कितना स्वचालित और परफ़ेक्ट है । अगर आप में पूरी लगन है । तो भगवान के दर्शन बतायी विधि से तीन महीने में हो जाते हैं । दिव्य नेत्र के द्वारा । " महामंत्र " जैसे नाम से न घबरायें ये सरल सहजयोग है ।
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