बुधवार, अगस्त 18, 2010

बलासुर के शरीर के सभी अंग ही रत्न बीज के रूप में परिणित हो गये ।


प्राचीनकाल में बल नाम का एक राक्षस था । इसने इन्द्र आदि सभी देवों को पराजित कर दिया था । कोई भी देवता इसको जीतने में समर्थ नहीं था । अतः देवताओं ने उपाय हेतु एक यग्य करने का विचार किया ।और उस असुर के पास जाकर उससे यग्य पशु बनने की प्रार्थना की । वचनबद्ध बलासुर ने अपना शरीर
देवताओं को दान में दे दिया । और अपने ही वाग्वज्र से वह पशुवत ही मारा गया । उस असुर ने संसार के कल्याण हेतु । देवताओं की हितकामना से यग्य में शरीर का त्याग किया था । अतः उसका शरीर विशुद्ध सत्वगुण सम्पन्न हो गया । उसके शरीर के सभी अंग रत्न बीज के रूप में परिणित हो गये । इस प्रकार रत्नों की उत्पत्ति होने पर । देवता । यक्ष । नाग तथा सिद्धों का बडा ही उपकार हुआ । जब वे विमान से उसके शरीर को आकाशमार्ग से ले जा रहे थे । तो वेग के कारण उसका शरीर स्वतः ही खण्ड खण्ड होकर प्रथ्वी पर जहां तहां गिरने लगा । उसके शरीर के अंग प्रथ्वी पर समुद्र । नदी । पर्वत । वन आदि जहां कहीं भी गिरे । उन स्थानों पर रत्न की खान बन गयी और वह स्थान उसी रत्न के नाम से प्रसिद्ध हो गया । उन खानों में विविध प्रकार के और रत्न उत्पन्न होने लगे । जो राक्षस । विष । सर्प । व्याधि आदि पाप जनित रोगों को दूर करने में समर्थ थे । रत्नों के अलग अलग प्रकारों को । वज्र या हीरा । मुक्तामणि । पद्मराग । मरकत । इन्द्रनील । वैदूर्य । पुष्पराग । कर्केतन । पुलक । रुधिर । स्फ़टिक । प्रवाल आदि कहते हैं ।
रत्न पारखी और रत्न के चाहने वालों को सर्वप्रथम । रत्न का आकार । रंग । गुण । दोष । फ़ल । परीक्षा तथा मूल्य ग्यात होना चाहिये । क्योंकि कुत्सित लग्न और कुयोग से बाधित । अशुभ दिन में जिन रत्नों की उत्पत्ति होती है । वे दोष युक्त हो जाते हैं । और उनकी गुण क्षमता निश्चय ही नष्ट हो जाती है ।
रत्नों में वज्र यानी हीरा सर्वाधिक प्रभावशाली होता है । वज्र यानी हीरे की उत्पत्ति बलासुर के अस्थिभाग से हुयी । हिमांच्चल । मातंग । सौराष्ट्र । पौण्ड्र । कलिंग । कोसल । वेण्वातट । सौवीर ये प्रथ्वी पर आठ भूभाग हीरा के क्षेत्र हैं । हिमालय से उत्पन्न हीरा तांबे के रंग का । वेणुका तट से प्राप्त हीरा चन्द्रमा जैसा सफ़ेद । सौवीर का नीलकमल और कृष्णमेघ के समान । सौराष्ट्र का तांबे के रंग का । कलिंग देश का सोने के समान । कोसल का पीले रंग का । पौण्ड्र का काला । मतंग का हल्के पीले रंग का होता है ।
संसार में कहीं पर अत्यन्त क्षुद्र वर्ण । पार्श्व भाग में भली प्रकार से दिखाई देने वाली रेखा । बिंदु । कालिमा । त्रास आदि दोष से रहित । परमाणु की तरह बहुत छोटा तथा बह्द तीखी धार वाला दुर्लभ हीरा मिल जाय । तो उसमें देवता का वास समझा जाता है । रंगो के अनुसार ही हीरों में देवताओं का विग्रह माना गया है । सफ़ेद । हरे । पीले । पिंगल । कालेपन पर । तथा तांवे के रंग के हीरे सुन्दर माने गये है । जस प्रकार संसार में वर्ण संकरता यानी नीच ऊंच भाव दुखदायी एवं दोषयुक्त होता है । हीरे का वर्णसंकर उससे कहीं अधिक कष्टकारक होता है । इसीलिये रंग और सुन्दरता के आधार पर ही हीरा रखना उचित नहीं होता । गुणवान रत्न गुण और सम्पत्ति लाता है । गुणहीन रत्न कष्ट लाता है । हीरे का एक भी हिस्सा टूटा या छिन्न भिन्न हो तो ऐसे गुणवान हीरे को घर में रखना उचित नहीं होता । अग्नि के समान स्फ़ुटित । श्रंगभाग से युक्त । विशीर्ण । गंदे या धुंधले रंग वाले । बीच स्थान में बिंदुओं वाले हीरे को पास में रखने से तुरन्त धन का नाश होने लगता है । जिस हीरे का कोई हिस्सा किसी चीज से विदीर्ण और क्षत विक्षत तथा मनुष्य शरीर जैसी आभा दिखाता हो । और खून के फ़ैले होने जैसा आभास देता हो । ऐसा हीरा
रखने से अत्यन्त शक्तिशाली व्यक्ति की भी मृत्यु हो जाती है । षटकोण । विशुद्ध । निर्मल । तीखे धार वाला । छोटा । सुन्दर और पार्श्वभाग से युक्त तथा मनोहारी किरणें सी बिखेरता हुआ हीरा बेहद दुर्लभ होता है ।
जो मनुष्य दोषशून्य । तीखे किनारे वाला । निर्मल हीरा पहनता है । वह जीवन भर स्त्री सम्पत्ति पुत्र धन धान्य आदि से भरा पूरा रहता है । सर्प । जहर । व्याधिया । अग्नि । जल । चोर आदि का भय । मन्त्र तन्त्र द्वारा अहित के लिये की गयी क्रियायें । ऐसे हीरे के पास आने से पहले ही दूर से निकल जाते हैं । यदि हीरा सभी दोषों से रहित और वजन में बीस तण्डुल ( आठ गौर सरसों के दानों के भार के बराबर एक तण्डुल होता है ) का हो । तो उसका मूल्य अन्य हीरों की तुलना में दोगुना होता है । जो हीरा सब गुणों से युक्त होता है । और जल में डालने पर तैरता है । वह सर्वश्रेष्ठ होता है । उसको धारण करना अति उचित है । जिस हीरे में थोडा भी दोष हो । उसकी कीमत सिर्फ़ असली कीमत की दस परसेंट रह जाती है । जिस हीरे में छोटे बडे कई दोष हों उसकी कीमत मूल कीमत की एक परसेंट ही रह जाती है । प्रथ्वी में जितने भी रत्न या लोहा आदि जितनी भी धातुएं हैं । हीरा उन सबमें चिह्नांकन कर सकता है । किन्तु अन्य कोई भी रत्न या धातु हीरे में चिह्नांकन नहीं कर सकती । पुष्परागादि जातिविशेष के रत्न दूसरी जाति के रत्न को काट सकते है । किन्तु हीरा और माणिक या कु्रुबिल्ब अपनी ही जाति के रत्न को काटने में सक्षम होते हैं । हीरे से ही हीरे को काट सकते हैं । अन्य रत्नों से हीरे को नहीं काट सकते । हीरे के अलावा । हीरक और मुक्ता आदि जितने भी रत्न हैं । उनमें किसी की भी प्रभा ऊपर की ओर नहीं जाती । केवल हीरा ही ऐसा
होता है । जिसकी प्रभा ऊपर की ओर जाती है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...