बुधवार, अगस्त 11, 2010

वैतरणी नाम की महा नदी

यमलोक के रास्ते में जो वैतरणी नाम की महा नदी पडती है । वह बेहद अगाध दुस्तर और देखने मात्र से पापियों को भयभीत करने वाली है । वह पीव और रक्त जैसे जल से भरी हुयी है । मांस के लोथडों जैसे कीचड से भरी हुयी । और मृत्यु के बाद तट पर आये हुये पापियों को देखकर । ये उन्हें भयभीत करने वालेअनेक रूप धारण कर लेती है । जैसे कडाही में अग्नि पर रखा हुआ घी खौलता है । वैसे ही पापी के उतरते ही इसका जल खौलने लगता है । इसका जल कीटाणुओं और कटीली सूंड जैसे जीवों से भरा हुआ है । सूंस घडियाल । वज्रदन्त जैसे मांसभक्षक हिंसक जीवों से यह नदी भरी हुयी है । प्रलय के समय बारह सूर्य उदयहोकर जिस प्रकार विनाशलीला करते हैं । वैसे ही ये सूर्य वहां सदैव तपते रहते हैं । तब उसके महाताप में जलते हुये पापी दुखी होकर हा माता हा पिता आदि चिल्लाते हुये विलाप करते हैं । वे जीव उस महाभयंकर धूप में इधर उधर भागते हैं । उस बेहद दुर्गन्ध युक्त जल में डुबकी लगाते हैं । और आत्मग्लानि से दुखी होते हैं । धर्मात्माओं को इस नदी में रुकना नहीं होता । वैतरणी नाम की एक लाल रंग और काले रंग की गाय होती है । अपने जीवन में उसका दान करने वाले और अन्य परोपकार करने वालों को वहां उपस्थित नाविक द्वारा सुख से वह नदी पार करा के आगे पहुंचा दिया जाता है । मकर संक्रान्ति और कर्क संक्रान्ति । व्यतीपात योग । दिनोदय । सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण । अमावस्या अथवा पुन्यकाल आने पर दान दिया जाता है । या मन में दान देने की जब श्रद्धा और अवसर आ जाय । वही दान का सर्वोत्तम समय है । क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है । शरीर का कोई भरोसा नहीं । धन भी सदा रहने वाला नहीं । मृत्यु जन्म के समय से ही छाया रूप होकर पीछे चलती है । ( धूप आदि में शरीर की जो छाया दिखाई देती है । वह मृत्यु का रूप है । मृत्य का समय आ जाने पर उस व्यक्ति को ये छाया दिखाई नहीं देती । देव प्रेत आदि योनियों की भी छाया दिखाई नहीं देती । क्योकि इनकी मृत्यु नही होती बल्कि समय पूरा होने पर उन्हें उस लोक से गिरा दिया जाता है । हम लोगों ने बहुत ऊपर आकाश में जब कभी चमकीला प्रकाश नीचे टूटता हुआ देखा होगा । जिसे भारत और अन्य देशों में तारा टूटना भी कहते हैं । ये उच्च लोकों से देवता आदि समय पूरा होने पर गिरा दिये जाते हैं । वही कुछ सेकंड के लिये हमें दिखाई देता है । ) सतकर्म और दान के प्रभाव से प्राणी को एहिक और पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है । स्वस्थ जीवन में दान देने से हजार गुना । रोग अवस्था में स्वार्थवश दान देने से सौ गुना । और मृत्यु के पश्चात मृतक के निमित्त दिया गया दान उतना ही मिलता है । जितना दिया गया हो । अतः मनुष्य को यथासंभव अपने ही हाथ से दान करना चाहिये । मरने के बाद कौन किसके लिये क्या दान और उपकार करेगा । इसमें भारी संशय ही है । इस नश्वर देह से स्थिर कर्म करना चाहिये । ये प्राण और ये जीवन एक मेहमान की भांति है । कब छोड जायेंगे । ये किसको पता है । अर्थात कोई पता नहीं ? धर्म की जीत होती है । अधर्म की नहीं । सत्य की जीत होती है । असत्य की नहीं । क्षमा की जीत होती है । क्रोध की नहीं । जिसकी बुद्धि इस प्रकार की होकर स्थिर भाव हो जाती है । उसकी कभी दुर्गति नहीं होती ।

1 टिप्पणी:

SHARMA VINAY ने कहा…

जय गुरूदेव की
सुन्दर लेख ।

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