शनिवार, अगस्त 14, 2010

जिन्दगी एक दिन में ही मृत्यु का बहाना लेकर समाप्त हो सकती है ।

इस क्षणभंगुर जीवन में आप सब निश्चित क्यों हैं ? दूसरे का हित करना उचित है । जो बाद में कल्याणकारी होता है । इस परोपकार धर्म से विपरीत कामिनिंयो के कटीले कटाक्ष से काम पीडित sex feeling आप सब के द्वारा जो आनन्द महसूस किया जाता है । क्या उसी में आपका वास्तविक हित है ? ऐसे आचरण से तो कभी भी हित सम्भव नहीं है । अतः इस प्रकार पाप क्यों करते हैं । आप को कुछ समय तो पारलौकिक सुधार हेतु भक्ति भजन में लगाना ही चाहिये । क्योंकि जल में डूबे हुये घडे के समान जिन्दगी एक दिन में ही मृत्यु का बहाना लेकर समाप्त हो सकती है । क्या इसमें कोई संदेह है ?
ऐश्वर्य कभी स्थायी नहीं होता । अतः कुछ दिन के लिये प्राप्त हुये अस्थिर ऐश्वर्य में आसक्त न होकर मनुष्य को अपनी बुद्धि धर्माचरण और साथ साथ परलोक सुधार में भी लगानी चाहिये । धन सम्पत्ति आदि तो क्षण भर में ही नष्ट हो जाता है । क्योंकि धन को अधीन रखना मनुष्य के हाथ की बात नहीं है । मन को लुभाने वाली सुन्दर स्त्रियां एक बार को सत्य हो सकती है । धन सम्पत्ति भी सत्य हो सकती है । किन्तु यह जीवन तो चंचला स्त्री के काम कटाक्ष की भांति ही असत्य है । शरीर में तेजी से आता बुडापा मुंह फ़ाडे शेर के समान भयभीत करता है । रोग शत्रु की भांति शरीर में उत्पन्न होते ही रहते हैं । आयु फ़ूटे हुये घडे से रिसते जल के समान शीघ्रता से खत्म होती ही जा रही है । फ़िर भी इस संसार में कोई भी मनुष्य अपने लिये ही आत्महित चिंतन में प्रवृत्त नहीं होता । ये कैसी दुख की बात है । क्या इसमें कोई संदेह है ?
जो मनुष्य परायी स्त्रियों में मातृभाव रखता है । जो दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है ।और सभी प्राणियों में अपने ही स्वरूप का दर्शन ( आत्मदर्शन ) करता है । वही सच्चा साधु है । जिसके पास धन है । उसी के मित्र एवं बन्धु बान्धव है । वही इस संसार में पुरुष है । और वही धन सम्पन्न व्यक्ति है ।
धन रहित होने पर मनुष्य को अपने ही मित्र पुत्र स्त्री तथा परिवार वाले त्याग देते हैं । धनवान होने पर वे सब पुनः उसके पास लौट आते हैं । क्योंकि इस संसार में धन को ही सब कुछ माना जाता है । क्या इसमें कोई संदेह है ?
आपत्तिकाल आने पर मनुष्य को दुखी नहीं होना चाहिये । तब उसे सम बुद्धि । प्रसन्न आत्मा । तथा सुख दुख में समान रहना चाहिये । धैर्यवान मनुष्य कष्ट प्राप्त करके भी दुखी नहीं होते । क्योंकि राहु के मुख में प्रविष्ट हुआ चन्द्रमा क्या फ़िर से उदय नहीं होता ? शरीर के लालन पालन में ही लगे रहने वाले मनुष्य के प्रति धिक्कार है । धिक्कार है । मनुष्य को धनहीन होने से क्षीण हुये शरीर के प्रति भी दुख नहीं करना चाहिये । क्योंकि सब जानते हैं । कि पतिवृता पत्नी सहित पांडव और युधिष्टर ने अपने आपत्तिकाल के दुख से मुक्त होकर पुनः सुख प्राप्त किया था । अतः अनुकूल समय की प्रतीक्षा धैर्य के साथ करनी चाहिये । क्या इसमें कोई संदेह है ? अर्थात इसमें कोई संदेह नहीं है ।

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