रविवार, नवंबर 20, 2011

जमीन पर कोई 300 धर्म हैं

वास्तविक धर्म को । ईश्वर और शैतान । स्वर्ग और नरक से । कुछ लेना देना नहीं है । धर्म के लिए अंग्रेज़ी में जो शब्द है । रिलीजन । वह महत्वपूर्ण है । उसे समझो । उसका मतलब है खंडों को । हिस्सों को संयुक्त करना । ताकि खंड खंड न रह जाएं । वरन पूर्ण हो जाएं । रिलीजन  का मूल अर्थ है । एक ऐसा संयोजन बिठाना कि अंश अंश न रहे । बल्कि पूर्ण हो जाए । जुड़कर प्रत्येक अंश स्वयं में संपूर्ण हो जाता है । पृथक रहते हुए प्रत्येक भाग निष्प्राण है । संयुक्त होते ही अभिन्न होते ही एक नई गुणवत्ता प्रकट होती है । पूर्णता की गुणवत्ता । और जीवन में उस गुणवत्ता को जन्माना ही धर्म का लक्ष्य है । ईश्वर या शैतान से धर्म का कोई संबंध नहीं है । लेकिन धर्मों ने जिस तरह से जगत में कार्य किया । उन्होंने उसका पूरा गुण धर्म । उसकी पूरी संरचना ही बदल डाली । बजाय इसके कि उसे बनाते । अंतस की एकता का विज्ञान । ताकि मनुष्य विखंडित न रहे । एक हो जाए । सामान्यतः तुम एक नहीं । अनेक हो । पूरी भीड़ हो । धर्म का कार्य है । इस भीड़भाड़ को । अनेकता को एक समग्रता में ढालना । ताकि तुम्हारे भीतर का प्रत्येक अंग  अन्य अंगों के साथ एक स्वर में काम करने लगे । न कोई विभाजन हो । न संघर्ष । न कोई श्रेष्ठ हो । न निकृष्ट ।  न किसी प्रकार का द्वंद्व बचे । तुम बस एक लय बद्ध अखंडता हो जाओ । दुनिया के इन सारे धर्मों की वजह से मनुष्यता धर्म शब्द का अर्थ तक भूल गई है । वे अखंडित मनुष्य के खिलाफ हैं । क्योंकि अखंडित मनुष्य को न ईश्वर की जरूरत है । न पादरी । पुरोहितों की । न मंदिर । मस्जिदों । और चर्चों की ।
अखंडित मनुष्य आप्तकाम होता है । स्वयं में पर्याप्त । वह अपने आप में पूर्ण है । और मेरी दृष्टि में उसकी पूर्णता ही उसकी पवित्रता है । वह इतना परितृप्त है कि फिर उसे परम पिता के रूप में दूर कहीं स्वर्ग में बैठे  उसकी देखभाल करने वाले किसी ईश्वर की कोई मानसिक जरूरत नहीं रह जाती । वह इस क्षण में इतना आनंदित है कि तुम उसे भावी कल के लिए भयभीत नहीं कर सकते । परिपूर्ण व्यक्ति के लिए कल का आस्तित्व ही नहीं होता । वर्तमान पल ही सब कुछ है । न तो वहां बीते हुए कल हैं । और न ही आने वाले कल । तुम एक अखंडित व्यक्ति को इन मूढ़तापूर्ण और बचकानी चालबाजियों से बहका नहीं सकते । अपनी इच्छानुसार नचा नहीं सकते कि ऐसा करने पर स्वर्ग एवं उसके सारे सुख उपलब्ध होंगे । और यदि वैसा काम किया । तो नरक में गिरकर अनंत काल तक दुख भोगोगे । इन सभी धर्मों ने तुम्हें कल्पनाएं दी हैं ।  क्योंकि तुम्हारी कुछ मनोवैज्ञानिक जरूरतें हैं । या तो तुम मन के पार उठो । जो कि सही मायने में धर्म है ।  या फिर कोरी कल्पनाओं में उलझे रहो । ताकि तुम्हारा मन रिक्त । अर्थहीन और अकेलेपन का अनुभव न करे । नदी में बहते तिनके की भांति । न पीछे जिसके स्रोत का पता है । न आगे किसी गंतव्य का । मानव मन की सबसे बड़ी जरूरतों में से 1 जरूरत है । दूसरों के लिए स्वयं के जरूरी होने का अहसास । सामान्यतः प्रतीत तो यही होता है । कि यह अस्तित्व तुम्हारे प्रति पूर्णरूपेण उपेक्षा से भरा है । यह नहीं कहा जा सकता कि उसे तुम्हारी कोई जरूरत है । या कि कह सकते हो ? तुम्हारे बिना भी सब कुछ बिलकुल ठीक ठाक चलता था । रोज सूर्योदय होता था । फूल खिलते थे । मौसम आ जा रहे थे । यदि तुम नहीं होते । तो कुछ भी तो फर्क न पड़ता । 1 दिन फिर तुम यहां नहीं होओगे । और उससे रंचमात्र भी अंतर न आएगा । अस्तित्व जैसा चलता रहा है । चलता रहेगा । यह बात तुम्हें तृप्ति नहीं देती कि तुम्हारा होना न होना । कोई अर्थ नहीं रखता । आवश्यक होना । तुम्हारी सबसे बड़ी आवश्यकता है । ठीक इसके विपरीत अस्तित्व तुम्हें यह अहसास देता है कि जैसे उसे तुमसे कोई सरोकार नहीं है । उसे तुम्हारी परवाह नहीं है । शायद उसे यह तक पता नहीं कि तुम हो भी । यह स्थिति मन को बहुत झकझोरने वाली है । इसी कमजोरी का फायदा उठाया है तथाकथित धर्मों ने । प्रामाणिक धर्म तुम्हारी इस आवश्यकता को गिराने की हर संभव कोशिश करेगा । ताकि तुम स्पष्ट देख लो कि यह कतई आवश्यक नहीं है । कि किसी को तुम्हारी आवश्यकता हो । और जब भी तुम स्वयं के आवश्यक होने की कामना करते हो । तुम थोथी कल्पनाओं की मांग करते हो । ये तथाकथित धर्म जो पृथ्वी पर कई रूपों में मौजूद हैं । हिंदू । मुसलमान । ईसाई । यहूदी । जैन । बौद्ध  और न जाने कितने धर्म । जमीन पर कोई 300 धर्म हैं । और वे सबके सब एक ही काम में संलग्न हैं । वे ठीक उसी आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं । तुम्हें झूठी तृप्ति दे रहे हैं । वे कहते हैं कि ईश्वर है । जो तुम्हारी फ़िक्र लेता है । तुम्हारी देखभाल करता है । जो तुम्हारा इतना अधिक शुभचिंतक है कि तुम्हारे जीवन को मार्ग दर्शन देने के लिए 1 पवित्र ग्रंथ भेजता है । कि तुम्हारी सहायता के लिए  तुम्हें सही राह पर लाने के लिए अपना इकलौता बेटा भेजता है । वह पैगंबर और मसीहा भेजता है । ताकि तुम कहीं भटक न जाओ । और यदि तुम भटक जाओ । तो वे तुम्हारी दूसरी कमजोरी का शोषण करते हैं । शैतान का भय । जो हर संभव ढंग से तुम्हें गलत रास्ते पर ले जाने की कोशिश में लगा है ।
साधारणतः जैसी मनुष्यता इस समय है । एक तरफ तो इसे ईश्वर की । संरक्षक की । पथ प्रदर्शक की । और सहयोग की जरूरत है । और दूसरी तरफ । 1 नरक की । ताकि आदमी उन सभी रास्तों पर चलने से डरा रहे । जिन्हें पादरी पुरोहित गलत समझते हैं । पर क्या गलत है । और क्या सही है । हर समाज में यह भिन्न भिन्न है । इसलिए सही और गलत समाज द्वारा निर्णीत होते हैं । उनका कोई अस्तित्वगत मूल्य नहीं है । हां एक सजगता की स्थिति है । जब तुम मन के पार चले जाते हो । और बिना किसी पूर्वाग्रह के चीजों को सीधे साफ देख सकते हो । आंखों पर मढ़े किसी सिद्धांत के बगैर । जब तुम सीधे देखते हो । तो तत्क्षण सही और गलत का ज्ञान हो जाता है । किसी को बताने की जरूरत नहीं रह जाती । न किन्हीं आदेशों की आवश्यकता ।
प्रत्येक समाज की अपनी धारणा है कि क्या सही है । और क्या गलत है ? पर जिसे वे गलत कहते हैं । उसे करने से तुम्हें कैसे रोकें ? मुश्किल यह है कि जिसे वे अशुभ और पाप कहते हैं । अधिकांशतः वह प्राकृतिक है । और वह तुम्हें आकर्षित करता है । वह गलत है । मगर स्वाभाविक है । और स्वाभाविक के प्रति एक गहन आकर्षण है । उन्हें इतना ज्यादा भय पैदा करना पड़ता है कि वह स्वाभाविक आकर्षण की अपेक्षा अधिक बलशाली सिद्ध हो । इसीलिए नरक का आविष्कार करना पड़ा । कई धर्म हैं । जो एक नरक से संतुष्ट नहीं हैं । और मैं समझ सकता हूं कि क्यों वे एक नरक से संतुष्ट नहीं हैं । ईसाइयत एक नरक से संतुष्ट है । उसका सीधा कारण है कि ईसाई नरक शाश्वत है । उसमें लंबाई का विस्तार बहुत है । अंत ही नहीं आता । चूंकि हिंदुओं । जैनों  और बौद्धों के नरक शाश्वत नहीं हैं । इसलिए उन्हें ऊंचाइयां निर्मित करनी पड़ीं । सात नरक । एक के ऊपर एक ! और हर नरक अधिक से अधिक पीड़ादायी होता जाता है । ज्यादा से ज्यादा अमानवीय ।
और मुझे आश्चर्य होता है । वे लोग । जिन्होंने इन नरकों का पूरे घोर विस्तार से वर्णन किया है । संत कहलाते थे । वे लोग  यदि उन्हें मौका मिलता । तो बड़ी आसानी से एडोल्फ हिटलर । जोसेफ स्टैलिन और माओत्से तुंग हो गए होते । उनको सब खयाल था कि कैसे सताया जाए । सिर्फ उनके पास शक्ति नहीं थी । लेकिन 1 सूक्ष्म अर्थ में । उनके पास भी शक्ति थी । पर वर्तमान में नहीं । यहां नहीं । उनकी ताकत थी उनके शंकराचार्य होने में । पोप और प्रमुख पादरी होने में । उस शक्ति के सहारे उन्होंने तुम्हें नरक में फिंकवाने का इंतजाम कर दिया । अभी न सही । तो भविष्य में कभी मृत्यु के बाद । वैसे तो मृत्यु स्वयं ही इतनी भयावह है । किंतु वह उनके लिए काफी नहीं थी । क्योंकि स्वाभाविक प्रवृत्तियां वास्तव में अत्यधिक प्रबल हैं । और वे लोग क्यों इन नैसर्गिक आकर्षणों के इतने खिलाफ थे ? क्योंकि सहज प्रवृत्तियां उनके न्यस्त स्वार्थों के विरुद्ध पड़ती हैं । सभी धर्मों ने सिखाया है कि गरीब धन्यभागी हैं । यह केवल जीसस की ही शिक्षा नहीं है । हां वे उसे जरा ठीक ढंग से । एक वचन में । उक्ति के रूप में कह देते हैं कि धन्यभागी  हैं । वे जो दरिद्र हैं । क्योंकि वे ही प्रभु के राज्य में प्रवेश के अधिकारी होंगे । लेकिन मूलतः यह समस्त धर्मों की शिक्षा है । तुम्हें गरीबी को एक वरदान के रूप में । परमात्मा के द्वारा दी गई भेंट समझकर अंगीकार करना चाहिए । यह सिर्फ तुम्हारी श्रद्धा की परीक्षा है । यदि तुम गरीबी की इस अग्निपरीक्षा में बिना शिकायत के  चुपचाप  बगैर यह सोचे कि यह अन्याय है । यदि तुम ईश्वर की देन मानकर इससे गुजर जाते हो । तो प्रभु का राज्य तुम्हारा है । यह लजारस के लिए बड़ी सांत्वना देने वाली बात है । जब जीसस उससे कहते हैं । ऐसा हुआ कि लजारस अत्यंत दरिद्र था । और गांव का सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति अपने जन्म दिन पर शानदार दावत दे रहा था । भूखा प्यासा लजारस उस गांव से गुजरता था । उसने थोड़ा सा पानी मांगा । तो नौकरों चाकरों ने उसे धक्के मारकर बाहर निकाल दिया । और बोले क्या तुझे दिखाई नहीं देता कि हमारा मालिक एक भोज दे रहा है । और बड़े बड़े अतिथि इकट्ठे हुए हैं ? और तू ठहरा एक मामूली भिखारी । तेरी भीतर घुसने की और पानी मांगने की हिम्मत कैसे पड़ी ? चल  हट । भाग यहां से । जितनी जल्दी हो सके । यहां से रफा दफा हो जा । जीसस लजारस से कहते हैं । परेशान मत होओ । स्वर्ग में तुम सभी सुखों का उपभोग करोगे । और इस आदमी को नरक की आग में जलते हुए देखोगे । वह प्यास से तड़फ रहा होगा । और तुमसे विनती करेगा कि लजारस मुझे थोड़ा सा पानी दे दो ।  कितनी भारी सांत्वना ! लेकिन यह चालाकी है । गरीबों के क्रोध और ईर्ष्या से धनवानों को बचाने की साजिश है । धनी तो थोड़े हैं । निर्धन बहुत हैं । एक बार उन्हें यह खयाल आ जाए कि हमारी दरिद्रता वरदान नहीं । बल्कि अभिशाप है । शोषण का परिणाम है । तो वे इन सारे धनवानों को मार ही डालेंगे । यह तरकीब दोनों प्रकार से बढ़िया है । दीन हीन के लिए सांत्वना कि निर्धनता वरदान है । और समृद्ध के लिए सुरक्षा । क्योंकि अब गरीब विद्रोह नहीं कर सकते । दुनिया में धर्मों के कारण गरीबी बनी हुई है । अन्यथा इसकी कोई और वजह नहीं । खासतौर से अब । जबकि विज्ञान और तकनीक इस पूरी पृथ्वी को स्वर्ग में बदल सकते हैं । ये धार्मिक लोग इस पृथ्वी का स्वर्ग में रूपांतरण पंसद नहीं करेंगे । क्योंकि तब उनके स्वर्ग का क्या होगा ? वे इस पृथ्वी को दरिद्र । भूखी । बीमार जैसी दुर्दशा में वह है । वैसी ही रखना चाहते हैं । क्योंकि इसी पर उनका सारा व्यवसाय निर्भर है । अमीर चर्चों को दान देते हैं । क्योंकि चर्च उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है । बेचारे गरीब तक दान देते हैं । जिनके पास खाने को भी पर्याप्त नहीं है । वे इसलिए दान देते हैं । क्योंकि चर्च उन्हें सांत्वना देता है । और उनका मार्गदर्शन करता है । यह जीवन बहुत छोटा है । कुछ ज्यादा तो है नहीं । और इसका भी अधिक हिस्सा तो गुजर चुका । अब थोड़ा सा शेष है । वह भी गुजर जाएगा । और फिर उसके बाद स्वर्ग में अनंत सुखों वाला शाश्वत जीवन है । चर्च उसका रास्ता बताता है । जीसस तुम्हें राह दिखाते हैं । प्राकृतिक जरूरतें । जैसे कामवासना । भूख । ये धार्मिक लोग तुम्हें उपवास करना सिखाते हैं । अब  यह प्रकृति के विरुद्ध है । उपवास करना उतना ही हानिप्रद है । जितना आवश्यकता से अधिक भोजन करना । यदि तुम बहुत ज्यादा खाते हो । पेट में ठूंसते ही जाते हो । तो वह भी अस्वाभाविक है । तुम्हारे अंदर मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ गड़बड़ है । शायद भीतर तुम इतना खालीपन अनुभव कर रहे हो ।कि उस आंतरिक रिक्तता को भरने के लिए । जो भी खाने की चीज तुम्हारे हाथ लग जाए । उसे ही अपने पेट में डाल लेते हो । धर्मों ने तुम्हें तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओं और प्रवृत्तियों के विरोध में क्यों रखा ? कारण सीधा साफ है । तुम्हें अपराध भाव महसूस कराने के लिए । इस शब्द को मैं दोहराना चाहता हूं । अपराध भाव ।  यह उनका खास मुद्दा रहा है । केंद्र बिंदु रहा है । तुम्हें मिटाने में । तुम्हारे शोषण में ।  तुम्हें उनकी इच्छानुसार ढालने में ।  तुम्हें निकृष्ट सिद्ध करने में । और तुम्हारा आत्मसम्मान नष्ट करने में । एक बार अपराध भाव उत्पन्न कर दिया । एक बार तुमने यह सोचना शुरू कर दिया कि मैं पतित आदमी हूं । एक पापी हूं । बस । उनका काम हो गया । तब कौन तुम्हें उबारेगा ? निश्चित ही किसी उद्धार करने वाले की जरूरत पड़ेगी । लेकिन पहले बीमारी पैदा करो । ओशो । दि रजनीश बाइबल ।

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